ब्रह्म का उत्कर्ष दार्शनिक , वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर अनुपम है – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज सर्व जीवों के चाह के विषय सच्चिदानन्द सर्वेश्वर की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि प्रत्यक्षादि इतर प्रमाणों से अनधिगत और अबाधित जगत् के अभिन्न निमित्तोपादान कारण सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर का नाम ब्रह्म है। उस सर्वेश्वर का उत्कर्ष दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर अनुपम हैं। अतः उसके भक्तों का उत्कर्ष भी अद्भुत है। वह सर्वेश्वर सर्व , सर्वगत, सर्वान्तरात्मा, सर्वातीत तथा सगुण – निर्गुण – साकार –  निराकार उभयरूप है। सनातन सर्वेश्वर वही है, जो सर्व जीवों की चाह का वास्तविक विषय सच्चिदानन्द स्वरूप है। वह आत्मीय ही नहीं अपितु साक्षात आत्मस्वरूप ही है। वह उसके अंश – सदृश सर्व जीवों का आस्थास्पद और आकर्षण केन्द्र अवश्य है। उसके वरण से मृत्यु, अज्ञता, दुःख का आत्यन्तिक उच्छेद सुनिश्चित है। उसके साक्षात्कार को भावना और विश्व को विप्लव पूर्ण विभीषिकाओं से बचाने की इच्छा अर्थ और काम को पुरुषार्थ विहीन होने से बचना अत्यावश्यक है। श्रीमद्भागवत के अनुसार चोरी, हिंसा, अनृत (झूठ), दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद (फूट), गैर, अविश्वास, स्पद्ध, लम्पटता, चूत (जुआ) और मद्य (मदिरा) रूप पन्द्रह अनर्थो के चपेट से अर्थ को विमुक्त रखना परमावश्यक है । तद्वत् काम को देशाति क्रम (उचित देश का अविचार), कालातिक्रम (उचित काल का अविचार), पात्रातिक्रम (गम्य अगम्य रूप पात्रता का अविचार), अशुचि, क्रोध, असंयम, निन्दा, वाचालता, अश्लीलता, मदविह्वलता, अभक्ष्य भक्षण, अति सामीप्य, अतिदूरता, अस्निग्धता और अनुदारता रूप पद्रह दोषों से विमुक्त रखना परमावश्यक है। तद्वत् धर्म को पुरुषार्थ — विहीनता से बचाने के लिये अनधिकार चेष्टा, कालातिक्रम, देशातिक्रम, पात्रातिक्रम, दम्भ, द्रोह, अभिमान, ख्याति, असंयम, मिथ्या आहार – विहार, देवता – पितर – परलोक – परमेश्वर – परोपकार – पूर्वजन्म – पुनर्जन्म में अनास्था, परोत्कर्ष की असहिष्णुता, आलस्य, असत्य और अधैर्यरूप पन्द्रह दोषों से विमुक्त रखना आवश्यक है। तद्वत् मोक्ष को पुरुषार्थ विहीनता से बचाने के लिये पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा, मलसहिष्णुता, विक्षेप सहिष्णुता, आवरण सहिष्णुता, प्रमाद, अहंकार, हरि – गुरु विमुखता, द्वैत सहिष्णुता, श्रवण – मनन – निदिध्यासन से परांमुखता, निर्गुण – निर्विशेष के अस्तित्व में अनास्था, परमेश्वर की परोक्षता, आत्मा की परिच्छिन्नता तथा असच्चिदानन्द रूपता की मान्यता रूप पद्रह दोषों का परित्याग परमावश्यक है। सनातन धर्म में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि मानवोचित शील को वर्णाश्रम की विधा से जीवन में शनैः – शनैः सन्निहित करने का विधान है। अतः अहिंसादि के नाम पर हिंसादि का ताण्डव नृत्य असम्भावित है।

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