
अरविन्द तिवारी
जगन्नाथपुरी(गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी सनातन धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था की महत्ता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि सनातन धर्म में शिक्षा, रक्षा, अर्थ, सेवादि को व्यवस्था सबको सदा समुचित सन्तुलित रूप से सुलभ कराने की भावना से निसर्ग सिद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान है ; अतः समय और सम्पत्ति का सदुपयोग, कर्तव्य पालनार्थ अपेक्षित संस्कार सम्पन्नता, स्वावलम्बन और सुबुद्धता, दम (मनोनिग्रह, इन्द्रियसंयम), दया तथा दानादि मानवोचित शीलसम्पन्नता, वर्णसंकरता और कर्मसंकरता से परांमुखता, संयुक्त परिवार की सुलभता आदि दिव्यताओं से सम्पन्न व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक संरचना इसमें सन्निहित है। वैकल्पिक आरक्षण में प्रतिभा तथा प्रगति का विलोप, प्रयोग विहीन प्रलोभन, प्रतिशोध और परतन्त्रता सुनिश्चित है। सनातन धर्म में स्वाधिकार की सीमा में कर्त्तव्य पालन विहित है ; अतः अनावश्यक या अत्यधिक दायित्व से सबको मुक्त रखने की अद्भुत चमत्कृति है। सनातन वर्णव्यवस्था में जन्म से सबकी जीविका सुरक्षित है तथा वंश परम्परागत जीविको पार्जन की दक्षता से सम्पन्न जन्म भी जीविको पार्जन में उपयोगी है। जन्म से ब्राह्मणादि ना मानने पर प्राप्त विसङ्गतियों का निवारण असम्भव है। समाज को शिक्षक, न्यायाधीश, अधिवक्ता, चिकित्सक, वास्तुविद्या विशारदादि अवश्य चाहिये। इसी प्रकार, रक्षक,, कृषक, वणिक, आभूषणकार, सेवक, नापित, रजक, कुम्भकार, चर्मकार, जुलाहा, सफाईकर्मी आदि भी चाहिये। ये यदि वंशपरम्परा से नहीं चाहिये, तब वैकल्पिक ब्राह्मणादि की संरचना में समय, सम्पत्ति का अपव्यय, अपेक्षित संस्कार का अभाव, संयुक्त परिवार का विघटन, वर्णसंकरता तथा कर्मसंकरता की विभीषिका, पारस्परिक स्नेह और सद्भाव का लोप तथा उत्तरोत्तर प्रज्ञाशक्ति और प्राणशक्ति का ह्रास, शिक्षा – रक्षा – अर्थ – और सेवा के प्रकल्पों में असन्तुलन, ब्राह्मणादि की न्यूनता या अधिकता, देहात्मवाद की प्रगल्भता, अर्थ काम की दासता, श्रौतस्मार्त सम्मत कर्मोपासनादि का विलोप और उसके फलस्वरूप लोकपालादि पद की अप्राप्ति और सर्वविध अपकर्ष भी अनिवार्य है। सनातन धर्म में वर्णाश्रमोचित कर्म विभाग के कारण फलचौर्य नहीं है। अभिप्राय यह है कि लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्ष का और मोक्ष का मार्ग सबके लिये प्रशस्त है। इसमें स्वाधिकार की सीमा कर्त्तव्य पालन विहित होने के कारण अनावश्यक या अत्यधिक दायित्व सबको मुक्त रखने की अद्भुत चमत्कृति है। इसमें अधिकार अनधिकार का विधान होने पर भी किसी की प्रतिभा और प्रगति का अवरोध नहीं है तथा सबमें सबका अधिकार जैसा अनर्गल प्रलाप ना होने से प्रगति के नाम पर प्रलयंकर उन्माद नहीं है। अपने – अपने कर्मों में संलग्न मनुष्य संसिद्धि लाभ करता है। मानव सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की स्वकर्मानुष्ठान के द्वारा समर्चा सिद्धि प्राप्त करता है। अपने – अपने अधिकार के अनुसार धर्म में दृढ़ निष्ठा गुण मान्य है; जबकि अनधिकार चेष्टा दोष। अभिप्राय यह है कि गुण तथा दोष की व्यवस्था अधिकार के अनुसार की जाती है, ना कि किसी वस्तु या व्यक्ति के अनुसार होती है।