प्रवृत्ति की सार्थकता निवृत्ति में और निवृत्ति की सार्थकता निर्वृति में है सन्निहित – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी सनातन धर्म की विशेषताओं की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि सनातन धर्म में मर्यादा, मनोविज्ञान, शरीरविज्ञान, संस्कारविज्ञान, भोजन – वस्त्र – आवास – शिक्षा – रक्षा – स्वास्थ्य – सेवा – न्याय – यातायत – विवाह – कृषि – गणित – लोक – परलोक – सृष्टि – स्थिति – संहृति – निग्रह – अनुग्रह आदि विविध विज्ञानों का सन्निवेश है। अतः आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक समग्र विकास में यह अमोघ हेतु है । पतन का मूल शिक्षा पद्धति की नीति तथा अध्यात्म विहीनता है। सनातन धर्म में उस शिक्षण संस्थान और शिक्षित को धर्मद्रोही उद्घोषित किया गया है, जिसके द्वारा केवल अर्थ और काम या धन और मान के लिये शिक्षा का उपयोग और विनियोग सुनिश्चित है । जो नियत काल तक प्राप्त होने वाले स्वर्गादि फलों को लक्ष्य करके प्रवृत्ति मार्ग का आश्रय लेते हैं, उन कर्म परायण पुरुषों के लिये यही सबसे बड़ा दोष है कि वे काल की सीमा में आबद्ध रहकर ही कर्म के फल का उपभोग करते हैं। समस्त कर्मों से उपरत हो जाना ही परम निवृत्ति है। अतः जो निवृत्ति को प्राप्त हो गया है, वह सम्पूर्ण निर्वृति ( परमानन्द स्वरूपा मुक्तिरूपा उपरामता ) लाभकर विचरण करे। अभिप्राय यह है कि प्रवृत्ति की सार्थकता निवृत्ति में और निवृत्ति की सार्थकता निर्वृति में सन्निहित है। सनातन धर्मशास्त्र किसी को अराजकता की ओर प्रेरित और प्रवाहित करने वाला नहीं है। व्यक्ति को उन्मादी बनाने के पक्ष धर सनातन धर्मशास्त्र बिल्कुल नहीं हैं । निस्सन्देह यह सब सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म की अभिव्यक्ति होनेके कारण ब्रह्म है। सच्चिदानन्द स्वरूप अमृत संज्ञक सर्वेश्वर से अभिव्यक्त पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश सहित समस्त स्थावर जङ्गम प्राणी अमृत पुत्र हैं।  पृथ्वी से उपलक्षित चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड सहित सर्व प्राणी परमात्मा से अभिव्यक्त परमात्म परिवार के सदस्य सगे सम्बन्धी हैं। दूसरों के द्वारा किये हुये जिस वर्ताव को अपने लिये नहीं चाहते, उसे दूसरों के प्रति भी नहीं करना चाहिये ।यह सनातन आदर्श श्रौत सिद्धान्त है। सनातन शास्त्रों में स्वयं को संयत करने और अराजक तत्त्वों के दमन करने का समादर है। अराजक तत्त्वों के दमन के मूल में स्नेह, सहानुभूति और सर्वहित की भावना सन्निहित है, ना कि विद्वेष का कालुष्य प्रतिष्ठित है। सनातन धर्म में तामस को राजस, राजस को सात्त्विक, सात्त्विक को शुद्ध सात्त्विक गुणातीत बनाने का क्रमिक सोपान सन्निहित है। इसमें विकास के नाम पर विनाश को उज्जीवित करने का उपक्रम नहीं है इसमें स्वास्थ्य के लिये अपेक्षित शुद्ध पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश, अहम्, महत्, दिक्, काल, सङ्कल्प, निश्चय, स्मरण, गर्व, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध से सम्पन्न व्यष्टि और समष्टि की संरचना और संस्थिति का विज्ञान है। गन्ध युक्त पृथ्वी, रस युक्त जल, स्पर्श युक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्द सहित आकाश, सत्त्व सम्पन्न अहम् और महत्ता युक्त महत् – ये सबके लिये मंगलकारी हो। समय पर वर्षा हो, पृथ्वी सस्य शालिनी रहे, यह देश क्षोभ रहित रहे और ब्राह्मण सबके हित में संलग्न रहें।

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