छुरा (गंगा प्रकाश)। उचित मूल्य की दुकानों में “उचित” शब्द मानो गुमशुदा हो गया है। गरीब परिवार पिछले पाँच महीनों से चना पाने के लिए तरस रहे हैं। सरकारी दुकानें खाली और बाजार भरा—लेकिन दाम इतने कि गरीब “चना चबाने” से पहले सौ बार सोचें।
उधर, केरोसिन यानी गरीब के चूल्हे का भरोसा, वह भी महीनों से नदारद है। सिलेंडर के दाम आसमान छू रहे, और मिट्टी तेल की उपलब्धता धरातल पर नहीं। नतीजा यह कि गरीबों के घरों में चूल्हे का धुआँ भी मजबूरी का हो गया है।
राशन कार्डधारियों की परेशानी यहीं खत्म नहीं होती। सरकारी दुकान में राशन कम मिलता है, लेकिन धक्के ज्यादा। लाइन में लगो—फिर पता चलता है कि आज स्टॉक नहीं, कल आना। अगर स्टॉक मिल भी गया तो ई-केवाईसी की नई पूजा-अर्चना शुरू हो जाती है।
ग्रामीणों का तंज— राशन से ज्यादा तो ई-केवाईसी का अपग्रेड मिल रहा है!
कई बुजुर्ग और महिलाएँ हफ्तों से ई-केवाईसी के लिए दुकान-दर-दुकान भटक रही हैं। नेटवर्क की दिक्कत, मशीन का फेल होना, और बार-बार वापस लौटना अब रोज़मर्रा की कहानी बन गई है।
परिवारों का कहना है कि सरकार की योजनाएँ कागज़ पर दमदार हैं, लेकिन ज़मीनी व्यवस्था दम तोड़े हुए है। गरीबों की मांग साफ़ है— चना चाहिए, केरोसिन चाहिए… धक्कामारी और केवाईसी की झंझट नहीं।
स्थानीय लोग प्रशासन से तत्काल आपूर्ति सुधारने, दुकानों की निगरानी बढ़ाने और ई-केवाईसी प्रक्रिया आसान करने की मांग कर रहे हैं, ताकि गरीबों को उनका हक समय पर और बिना अपमान के मिल सके।
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