CG: बरसती बारिश में गरियाबंद कलेक्टरेट का घेराव: हजारों आदिवासियों का हुंकार, ‘हमें कृपा नहीं हक चाहिए’

गरियाबंद (गंगा प्रकाश)। बरसती बारिश में गरियाबंद कलेक्टरेट का घेराव: बीते दिन बुधवार को गरियाबंद जिले में वह नज़ारा देखने को मिला, जिसने पूरे प्रशासन को हिला कर रख दिया। आसमान से बरसती मूसलधार बारिश भी आदिवासियों के संकल्प को डिगा नहीं सकी। जिले के मजरकट्टा स्थित आदिवासी विकास परिषद प्रांगण से लेकर कलेक्टोरेट तक, सड़कें आदिवासियों के नारों से गूंज उठीं। सुबह से ही हजारों की संख्या में महिलाएं, बुजुर्ग, युवा, छात्र-छात्राएं और गांवों के प्रतिनिधि पारंपरिक वेशभूषा में एकत्र होने लगे। उनकी आँखों में केवल एक ही सपना था – “हमारे जल, जंगल, ज़मीन और स्वशासन पर हमारा अधिकार।”
इस विशाल रैली का नेतृत्व सर्व आदिवासी समाज कर रहा था। भीगते हुए लोग ‘जय जोहार’, ‘ग्रामसभा जिंदाबाद’, ‘वन विभाग होश में आओ’ जैसे नारों के साथ पैदल मार्च करते हुए कलेक्टोरेट पहुंचे। वहां राष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और कलेक्टर के नाम 9 सूत्रीय ज्ञापन सौंपा गया। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि वे किसी भी हाल में अपनी अस्मिता और अधिकारों से समझौता नहीं करेंगे।
क्या थीं आदिवासी समाज की प्रमुख माँगें?
- 15 मई 2025 को वन विभाग द्वारा जारी पत्र को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने की माँग। उनका आरोप है कि यह पत्र सीधे ग्रामसभा के अधिकारों पर हमला है, जो संविधान की 5वीं अनुसूची और पेसा कानून के खिलाफ है।
- ग्रामसभा और CFMC समितियों को तकनीकी व वित्तीय सहयोग के साथ स्वतंत्र रूप से वन प्रबंधन का अधिकार। आदिवासियों का कहना था कि वह जंगल के असली संरक्षक हैं, किसी ठेकेदार या बाहरी एजेंसी के मोहताज नहीं।
- वनभूमि से आदिवासियों की जबरन बेदखली पर तत्काल रोक। हाल ही में बेदखली की घटनाओं ने कई गांवों में डर का माहौल बना दिया है। प्रदर्शनकारियों ने मांग की कि लंबित वनाधिकार दावों का पारदर्शी और समयबद्ध निपटारा हो।
- 2013 में जिन वनग्रामों को राजस्व ग्राम में परिवर्तित किया गया, वहां हुई त्रुटियों को तत्काल सुधारा जाए। लोगों का कहना था कि इससे कई योजनाओं का लाभ और कानूनी संरक्षण प्रभावित हो रहा है।
- LWE मुक्त क्षेत्रों में तेजी से वनाधिकार कानून लागू किया जाए।
- PVTG (Particularly Vulnerable Tribal Groups) को पर्यावास अधिकार शीघ्र दिया जाए, जैसा कि उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है। उनका कहना था कि यह अधिकार जीवन और संस्कृति से जुड़ा सवाल है।
- ग्रामसभा को संस्थागत दर्जा, अलग पहचान, आर्थिक अधिकार और निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाए।
- जल, जंगल, जमीन और सभी सामुदायिक संसाधनों पर ग्रामसभा का स्वामित्व सुनिश्चित किया जाए।
- टाइगर रिज़र्व और हाथी कॉरिडोर क्षेत्रों में ज़ीरो विस्थापन नीति लागू हो, ताकि मानव और वन्यजीव सह-अस्तित्व की नीति के तहत संरक्षण भी हो और आदिवासी भी विस्थापन के डर से मुक्त रहें।
क्या बोले आंदोलनकारी नेता?
जिला पंचायत सदस्य संजय नेताम ने सभा को संबोधित करते हुए कहा:
“यह आंदोलन सिर्फ विरोध नहीं, हमारी अस्मिता और जीवन की लड़ाई है। वन विभाग जिस तरह ग्रामसभाओं के अधिकारों को छीनने की कोशिश कर रहा है, वह संविधान और पेसा कानून का उल्लंघन है। हम लोकतांत्रिक मंचों पर हर स्तर पर लड़ेंगे। हमारी पीढ़ियों ने इस जंगल को बचाया है, कोई भी हमें इससे बेदखल नहीं कर सकता।”
वहीं, जिला पंचायत सदस्य लोकेश्वरी नेताम ने कहा:
“आज की रैली में महिलाओं की भागीदारी ऐतिहासिक रही। यह बताता है कि आदिवासी समाज जागरूक है। हम किसी कृपा के मोहताज नहीं हैं, यह हक हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। ग्रामसभाओं को पूरी तरह सशक्त करना होगा, तभी आदिवासी समाज का वास्तविक विकास होगा।”
प्रशासन की प्रतिक्रिया
प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधिमंडल से एसडीएम महराना ने ज्ञापन प्राप्त कर सभी माँगों को शासन तक पहुँचाने का आश्वासन दिया। प्रशासनिक सूत्रों का कहना है कि वन विभाग के पत्र पर शासन स्तर पर समीक्षा की जा रही है, हालांकि आदिवासी संगठनों का कहना है कि यदि उनकी माँगें जल्द नहीं मानी गईं, तो आंदोलन को और बड़ा किया जाएगा।
मौसम भी नहीं रोक सका आदिवासी समाज का उत्साह
बारिश से भीगते कपड़े, कीचड़ में फिसलते पैर और बहते नाले – इन सबके बीच भी आदिवासी महिलाएं सिर पर पारंपरिक पगड़ी, बच्चों को गोद में लिए और युवा नारे लगाते हुए पूरे रास्ते संघर्ष गीत गाते रहे। यह नज़ारा किसी क्रांतिकारी फिल्म के दृश्य से कम नहीं था। प्रदर्शनकारियों का कहना था:
“यह शुरुआत है। जब तक संविधान और कानून में दिए गए हमारे अधिकार जमीन पर लागू नहीं होते, तब तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा।”
विश्लेषण
गरियाबंद की यह रैली न सिर्फ प्रशासन, बल्कि पूरे प्रदेश के लिए संकेत है कि आदिवासी समाज अब चुप बैठने को तैयार नहीं। बरसात के मौसम में इतनी बड़ी संख्या में लोगों का निकलना बताता है कि जंगल, जमीन और अस्मिता से जुड़ा यह सवाल आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ की राजनीति और प्रशासन दोनों के लिए अहम चुनौती बन सकता है।