गरियाबंद/फिंगेश्वर (गंगा प्रकाश)। धान खरीदी उत्सव पर्व में सरकार बड़े गर्व से दावा करती है कि किसान को एक रूपये की भी अतिरिक्त मजदूरी नहीं देनी चाहिए, इसलिए शासन द्वारा लगभग हर सहकारी समिति में प्रासंगिक व्यय की राशि समितियों को अग्रिम भेजी जाती है और घोशणा की गई कि सरकार किसान की हर चिंता का समाधान कर रही है, लेकिन असली सवाल यहीं से शुरू होता है क्या सरकार द्वारा भेजी गई यह राशि किसान के काम आ रही या नहीं जवाब कड़वा है लेकिन सच्चाई जानना जरूरी है नहीं। प्रासंगिक व्यय राशि जो समिति में मजदूरों व सुरक्षा के भुगतान के लिए दी जाती है ताकि किसान पर वित्तीय बोझ न आए किन्तु आज धान खरीदी प्रणाली का यह सबसे बड़ा गड़बड़झाला के केन्द्र बिंदु बन चुका है, कागज में यह पैसा किसान की राहत है, लेकिन जमीन पर यह पैसा समिति प्रबंधको, खरीदी केन्द्र के प्रभारी, समिति अध्यक्ष और उनके पूरे चैनल की निजी आय बन चुका है जो कि सुर्खियों का विशय बना हुआ है जिससे इस राशि के खर्च को लेकर सवाल उठना लाजमी हैं। वही आज भी धान खरीदी केन्द्रों में धान बेचने वाले किसान मजदूरों को अपनी जेब से भुगतान करता है। निर्बल, मजबूर और पूरी तरह सिस्टम पर निर्भर किसान के पास विकल्प ही क्या है। धान बेचना है, कम से कम नुकसान में बेचना है तो वह मना भी नहीं कर सकता, ज्यादातर समितियों में मजदूरी वसूली खुलेआम, निर्भिक और बिना किसी निगरानी के होती है, यानी सरकार का पैसा और किसान का पैसा दोनों खर्च होते हैं, लेकिन राहत किसी को नहीं मिलती, सिवाय उन लोगों के जो सिस्टम को अपनी जेब के हिसाब से चलाना जानते हैं। छत्तीसगढ़ में सहकारी समितियों में पिछले दो पंचवर्शीय से चुनाव ही नहीं हुए, अध्यक्ष मनोनित होते हैं और योग्यता सिर्फ एक सत्ताधारी दल के स्थानीय नेतृत्व का चेला होना, कांग्रेस शासन हो या वर्तमान भाजपा दोनों में समिति अध्यक्षों पर किसानों से ज्यादा कर्मचारियों का हित साधने का आरोप है, सूत्र बताते है कई समितियों के अध्यक्ष को धान खरीदी शुरू होने से पहले ही 3 से 5 लाख रूपये तक का एडवांस मिल चुका है, इसलिए वे किसानों के हितैशी की जगह हमाली- भुगतान में में शामिल कर्मचारियों का कवच बनकर खड़े हैं, किसान उन्हें शासन का प्रतिनिधि समझते हैं, लेकिन समिति अध्यक्ष किसानों के शोशणकर्ताओं की ढाल बन चुके हैं।
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