CG: मौसीबाड़ी से निजधाम लौटे जगत के नाथ: गरियाबंद में उमड़ा श्रद्धा का सैलाब, बहुड़ा यात्रा में गूंजे जयकारे

 

गरियाबंद (गंगा प्रकाश)। मौसीबाड़ी से निजधाम लौटे जगत के नाथ: श्रावण मास की पवित्र बेला में रविवार को गरियाबंद शहर पूरी तरह भक्तिमय हो उठा, जब जगत के पालनहार भगवान श्रीजगन्नाथ जी अपनी मौसीबाड़ी (गुंडिचा मंदिर) से अपने निजधाम श्रीमंदिर की ओर बहुड़ा यात्रा पर निकले। नौ दिनों तक मौसी के घर विश्राम करने के बाद जब भगवान बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर लौटे, तो नगर के कोने-कोने से जय जगन्नाथ के गगनभेदी उद्घोष सुनाई देने लगे। ऐसा लग रहा था मानो स्वयं वैकुंठ का दरबार गरियाबंद की धरती पर उतर आया हो।

दोपहर 3 बजे जैसे ही बहुड़ा यात्रा का आरंभ हुआ, श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ा। शहर की सड़कों पर जगह-जगह भव्य तोरणद्वार बनाए गए थे। रंग-बिरंगी झंडियां, पुष्पमालाएं, केले के खंभे और आम के पत्तों से रथ मार्ग को सजाया गया था। ढोल-नगाड़ों की थाप, मंजीरे की झंकार और शंखध्वनि के बीच हर उम्र के लोग नाचते-गाते भगवान के रथ को खींचने के लिए उमड़ पड़े। महिलाएं कीर्तन मंडलियों के साथ भजन गा रही थीं – “जय जगन्नाथ, जय बलभद्र, जय मां सुभद्रा” – और चारों ओर भक्ति रस की सरिता बह रही थी।

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समर्पण का महोत्सव

श्री जगन्नाथ परिवार युवा बल समिति के सदस्यों ने बताया कि यह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि श्रद्धा, समर्पण और सामाजिक एकता का जीवंत उदाहरण है। समिति अध्यक्ष ने कहा, – “हर वर्ष हम भगवान की कृपा से इस आयोजन को और दिव्य रूप देने का प्रयास करते हैं। यह यात्रा हमें सेवा, त्याग और संस्कारों की याद दिलाती है।”

यात्रा के दौरान जगह-जगह पुष्पवर्षा की गई, रथों का शुद्ध जल से अभिषेक किया गया, और श्रद्धालुओं के लिए ठंडा पानी, शरबत, नींबू पानी और प्रसाद वितरण की व्यवस्था की गई। बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक रथ यात्रा में शामिल होकर पुण्यलाभ लेते दिखे।

धार्मिक मान्यता का महत्व

बहुड़ा यात्रा का अर्थ होता है ‘वापसी की यात्रा’। ओड़िया शब्द ‘बहुड़ा’ इसी भाव को प्रकट करता है। रथ यात्रा के नौ दिन पूर्व भगवान श्रीजगन्नाथ अपने मौसीबाड़ी (गुंडिचा मंदिर) जाते हैं, जिसे उनका मायका माना जाता है। वहां मां लक्ष्मी क्रोधित होकर पीछे से मंदिर के दरवाजे बंद कर देती हैं, क्योंकि वे बिना बताए घर से निकल जाते हैं। किंवदंती है कि वापसी पर भगवान मां लक्ष्मी को मनाकर पुनः अपने घर लौटते हैं। इसी प्रसंग को बहुड़ा यात्रा कहा जाता है।

आज तीनों रथ – भगवान बलभद्र का ‘तालध्वज’, देवी सुभद्रा का ‘दर्पदलन’ और भगवान जगन्नाथ का ‘नंदीघोष’ – दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर अपने निजधाम श्रीमंदिर पहुंच गए। जैसे ही भगवान रथ से उतरे, भक्तों ने उँचे स्वर में कीर्तन गाया और महाआरती उतारी। यह दृश्य अद्भुत और अलौकिक था।

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देवशयन एकादशी से देवउठनी तक का काल

धार्मिक मान्यता के अनुसार, बहुड़ा यात्रा के पश्चात भगवान जगन्नाथ योगनिद्रा (चीर निद्रा) में चले जाते हैं। देवशयन एकादशी से देवउठनी एकादशी तक का यह काल ‘चातुर्मास’ कहलाता है। इस दौरान मांगलिक कार्यों पर विराम लग जाता है। विवाह, गृह प्रवेश, उपनयन, तुलसी विवाह, शालिग्राम विवाह जैसे शुभ कार्य नहीं होते। जब देवउठनी एकादशी पर भगवान जागते हैं, तभी पुनः सारे मांगलिक कार्य आरंभ होते हैं। इस परंपरा के पीछे यह भाव है कि जब सृष्टिकर्ता विश्राम में हों, तब संसार भी क्षमतानुसार तप, साधना और सेवा में लगे।

सांस्कृतिक और सामाजिक संदेश

बहुड़ा यात्रा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि समाज को जोड़ने और एक दूसरे के प्रति सम्मान, सहयोग और सेवा का भी संदेश देती है। रथ खींचने में हर वर्ग, जाति, संप्रदाय, उम्र और पेशे के लोग साथ आते हैं। किसी का कोई भेद नहीं रहता। यही कारण है कि भगवान जगन्नाथ को ‘सबका नाथ’ कहा जाता है।

भक्तों की आस्था ने रचा इतिहास

आज गरियाबंद में हुए इस दिव्य आयोजन ने न केवल नगरवासियों को आनंदित किया, बल्कि छत्तीसगढ़ के कोने-कोने से आए भक्तों के लिए भी अविस्मरणीय बन गया। यात्रा के समापन पर श्रीमंदिर परिसर में महाप्रसाद का वितरण हुआ। श्रद्धालुओं ने भगवान के दर्शन कर अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के कल्याण की कामना की।

यह बहुड़ा यात्रा एक बार फिर यह संदेश दे गई कि “जीवन की हर यात्रा का अंतिम पड़ाव अपने निजधाम, अपने सत्य और अपने मूल में लौटना ही है।”

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