ग्राम पंचायत पाली का मामला, गरियाबंद जिले में आदिवासियों के हक़ पर फिर चोट
गरियाबंद/फिंगेश्वर (गंगा प्रकाश)। social exclusion – छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हक़ और योजनाओं को लेकर सरकार भले ही बड़े-बड़े दावे करती हो, लेकिन ज़मीनी हकीकत इसके उलट नज़र आती है। गरियाबंद जिले के फिंगेश्वर ब्लॉक के ग्राम पंचायत पाली में एक गरीब आदिवासी परिवार का प्रधानमंत्री आवास ढहाए जाने की घटना ने प्रशासन की कार्यप्रणाली और संवेदनहीनता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
ओंकार सिंह ठाकुर नामक गरीब आदिवासी का परिवार पिछले कई दिनों से सामाजिक बहिष्कार और अत्याचार झेल रहा है। ग्रामीणों का दबाव इतना बढ़ गया कि पहले परिवार को समाज से काट दिया गया – न कोई बात करता, न दुकान से सामान देता। और अब, जब प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत उन्हें अपना पक्का मकान बनाने का हक़ मिला, तो उसका ढांचा ही ज़मीनदोज़ कर दिया गया।

सामाजिक बहिष्कार से लेकर मकान तोड़ने तक
पीड़ित परिवार का कहना है कि पंचायत स्तर पर लगातार उन्हें दबाया गया। पहले तो उन्हें गांव की गतिविधियों से बाहर कर दिया गया, यहां तक कि बाज़ार से सामान खरीदना भी मुश्किल हो गया। और जब प्रधानमंत्री आवास का मकान बनना शुरू हुआ तो ग्रामीणों ने प्रशासन पर दबाव डालकर उसे भी रोकने का षड्यंत्र रचा।
परिवार का आरोप है कि प्रशासनिक टीम ने बिना पूरी जांच किए जल्दबाजी में गली का रास्ता चिन्हित कर दिया और मौके से चली गई। इसके बाद ग्रामीण औजार लेकर पहुंचे और निर्माणाधीन मकान को पूरी तरह तोड़ डाला। इतना ही नहीं, घर में लगी खिड़की और चौखट तक निकाल ले गए।
पट्टा होने के बावजूद तोड़ा गया मकान
सबसे अहम तथ्य यह है कि ओंकार सिंह ठाकुर के पास उस ज़मीन का आबादी पट्टा मौजूद है। यानी जमीन उनके नाम पर वैध है। इसके बावजूद ग्रामीणों ने उस जमीन को गली बताकर मकान को अवैध घोषित कर दिया और प्रशासन ने भी बिना गहराई से जांच किए कार्रवाई कर दी।
इस घटना की जानकारी यहां तक कि पंचायत के सरपंच तक को नहीं दी गई। ऐसे में सवाल उठता है – क्या प्रशासन दबंगों के दबाव में काम कर रहा है?
जनपद सीईओ ने सफाई दी है कि “नाप-जोख में मकान का कुछ हिस्सा पट्टे से बाहर पाया गया था।” लेकिन बड़ा सवाल यही है कि – अगर पट्टा मान्य है तो फिर मकान क्यों तोड़ा गया? क्या प्रशासन ने सिर्फ एक पक्ष की बात मानकर गरीब आदिवासी के हक़ को कुचल दिया?
प्रशासन और सरकार पर सीधे सवाल
ग्राम पंचायत पाली में घटी यह घटना कई गंभीर सवाल खड़े करती है –
- क्या आज भी गांवों में सामाजिक बहिष्कार जैसे पुराने जमाने के नियम चलेंगे?
- क्या पट्टा होने के बावजूद गरीब आदिवासी परिवार प्रधानमंत्री आवास योजना का हक़ नहीं पा सकता?
- क्या प्रशासन दबंगों के दबाव में निर्णय ले रहा है?
- क्या शासन-प्रशासन के नियम गरीब और आदिवासी परिवार पर लागू नहीं होते?
बड़ा सवाल – क्या यही है ‘सबका साथ, सबका विकास’?
प्रधानमंत्री आवास योजना को लेकर सरकार बार-बार दावा करती है कि “हर गरीब को पक्का मकान मिलेगा।” लेकिन पाली गांव में जो हुआ उसने इन दावों की पोल खोल दी है। जिस गरीब आदिवासी को सरकार ने मकान का हक़ दिया, उसी का मकान प्रशासन और ग्रामीणों की मिलीभगत से तोड़ दिया गया।
यह न सिर्फ़ गरीब आदिवासी परिवार के साथ खुला अन्याय है, बल्कि शासन-प्रशासन की नाकामी और संवेदनहीनता का भी उदाहरण है।
इंसाफ़ की तलाश में भटक रहा परिवार
वर्तमान में ओंकार सिंह ठाकुर का पूरा परिवार दर-दर भटक रहा है। न घर बचा, न समाज का सहारा। गांव में उन्हें स्वीकार नहीं किया जा रहा और प्रशासनिक दफ्तरों में केवल आश्वासन मिल रहा है।
अब देखना होगा कि शासन-प्रशासन इस मामले में कब तक चुप्पी साधे रहता है और कब तक गरीब आदिवासी परिवार इंसाफ़ की गुहार लगाता रहेगा।