अरविन्द तिवारी
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्री निश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज यज्ञ और यज्ञफल की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि यज्ञ , दान , तप , चित्त शुद्धि और समाधि रूप इन साधनों से भी उत्कृष्ट आत्म ज्ञान माना गया है। आत्म विद्या सर्व विद्याओं में उत्कृष्ट है। उसी से अमृत संज्ञक मोक्ष सुलभ होता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति – दो प्रकार के वैदिक कर्म हैं। मर्त्यलोक में ये द्विजों के अभ्युदय और निःश्रेयस रूप सब प्रकार के कल्याणमें हेतु हैं। पुत्र , पत्नी आदि में आसक्ति की दशा में स्ववर्णोचित कर्मों का आस्था और विधि पूर्वक अनुष्ठान तथा सन्यास अतिरिक्त आश्रम धर्मों का सेवन – प्रवृत्त कर्म कहा जाता है। पुत्र , पत्नी आदि में अहन्ता – ममता का परित्याग पूर्वक सन्यासोचित अहिंसा , सत्य , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह , संयम , अनहंकारादि नियमों का अनुष्ठान तथा आत्म तत्त्व का सम्यक् विचिन्तन – निवृत्त कर्म है। यज्ञादि काम्य संज्ञक प्रवृत्त कर्म का सेवन करने वाला स्वर्गलोक में महिमान्वित होता है। शम , दम , आत्म श्रवणादि संज्ञक निवृत्त कर्म का सेवन करने वाला ब्रह्म निर्वाण लाभ करने में समर्थ होता है।
सर्वकारण सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की यज्ञ संज्ञा है। कारण से कार्य की निष्पत्ति रूपा सृष्टि यज्ञ सामग्री की समग्र अभिव्यक्ति तथा यज्ञ फल है। कार्य की कारण भावापत्ति रूपा संहृति यज्ञ की समग्र सिद्धि है। त्रिवृत्करण की प्रक्रिया के अनुसार यजमान द्वारा अभिमन्त्रित हवनीय द्रव्य की अग्नि भावापत्ति , अग्नि की आदित्य भावापत्ति यज्ञ है। आदित्य की वृष्टि भावापत्ति , वृष्टि की अन्न भावापत्ति , अन्न की यजमान भावापत्ति, यजमान की पुत्र भावापत्ति फल है। पुत्र भावापत्ति फल है। पार्थिव प्रपञ्च की पृथ्वी भावापत्ति , पृथ्वी की जल भावापत्ति , जल की तेजोभावापत्ति , तेज की वायु भावापत्ति, वायु की आकाश भावापत्ति , आकाश की अव्यक्त भावापत्ति और अव्यक्त की ब्रह्मात्म भावापत्ति यज्ञ है। तद्वत् ग्राह्य विषय की ग्राहक करण भावापत्ति , ग्राहक करण की अनुग्राहक अधिदैव भावापत्ति, अनुग्राहक अधिदैव की धारक जीव भावापत्ति और धारक जीव की अधिष्ठानात्मक शिवात्म भावापत्ति यज्ञ तथा यज्ञफल है। परब्रह्म से शब्द ब्रह्मात्मक प्रणव की अभिव्यक्ति आत्मार्था सृष्टि है। प्रणव बल संप्राप्त प्रणवाधिकरण अन्तःकरणोपाधिक आत्मा की परब्रह्म भावापत्ति यज्ञ तथा यज्ञफल है। अभ्युदय और निःश्रेयस में प्रयुक्त तथा विनियुक्त देहेन्द्रिय प्राणान्त:करण के शोधन का शास्त्र सम्मत तापक प्रकल्प यज्ञ है। अन्न स्थावर – जङ्गम प्राणियों का परिपोषक तथा अभिव्यञ्जक संस्थान है। जङ्गम प्राणियों में मनुष्यादि शरीर क्रमश: अन्न परिपाक रस , शोणित , मांस , मेद , स्नायु , अस्थि , मज्जा , शुक्र संज्ञक अष्ट धातुमय और त्वक् , मांस , शोणित , अस्थि , स्नायु , मज्जा नामक षाट्कौशिक (छह कोशोंवाला) है।