किसी पदार्थ के नाश का अर्थ है व्यक्त को अव्यक्त के रूप में परिवर्तित करना – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाभाग अपनी राष्ट्र रक्षा अभियान यात्रा एवं विभिन्न संगोष्ठियों में वेदों में निहित ज्ञान, विज्ञान एवं दर्शन को जोकि प्रत्येक काल एवं परिस्थिति में प्रासंगिक व सर्वहितप्रद सिद्ध है, उसको सरलतम शब्दों में जनसामान्य को सुलभ कराते हैं।  पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी  शंकराचार्य जी  विज्ञान की शास्त्रसम्मत ब्याख्या करते हुए कहते हैं कि विभिन्न शास्त्रों में उल्लेखित तथ्य के अनुसार किसी भी पदार्थ की आकस्मिक उत्पत्ति नहीं हो सकती और आकस्मिक नाश भी नहीं होता , इसका तात्पर्य अव्यक्त पदार्थ को व्यक्त के रूप में परिवर्तित करते हैं। किसी पदार्थ के नाश का अर्थ व्यक्त को अव्यक्त के रूप में परिवर्तन करना है , यही उसका मौलिक स्वरुप है। हमारा यह स्थूलहमारा शरीर एक यंत्र की तरह है जिसके संचालन के लिए सूक्ष्म शरीर की आवश्यकता होती है। बिना सूक्ष्म शरीर की उपस्थिति में हमारा यह स्थूल शरीर शव हो जाता है। सृष्टि की संरचना में पांच तत्वों की भूमिका है,  पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश । मिट्टी के विशिष्ट गुण गंध का कर्षण करने पर वह जल में परिवर्तित हो जाता है अर्थात जिस वस्तु में जो नैसर्गिक गुण होता है  उसका कर्षण करने पर वह कारण में बदल जाता है । ठीक इसी प्रकार जल के निसर्ग सिद्ध गुण रस के कर्षण से वह अपने कारण तेज में , तेज के विशिष्ट गुण रूप के कर्षण से वह अपने कारण वायु में तथा वायु के नैसर्गिक गुण स्पर्श के कर्षण से वह आकाश में परिवर्तित हो जाता है । इस गूढ़ रहस्य को समझना एवं प्राप्त करना ही वैज्ञानिक कार्य है। हमारे जीवन के प्रत्येक गतिविधि में दर्शन एवं विज्ञान घुला हुआ है।   पुरी शंकराचार्य जी आगे महायंत्रो की चर्चा करते हुए कहा कि आधुनिक युग में महायंत्रो के उपयोग का प्रयोजन समय की , श्रम की , सहयोगियों की , सामग्रियों की बचत के लिए किया जाता है तथा इस बचत का उपयोग वह मौज-मस्ती पूर्ण जीवन में करना चाहता है। परंतु महायंत्रो के उपयोग के बाद भी समय की कमी , सहयोगी की कमी , सामग्री की कमी होना इसके निर्माण के प्रयोजन को ही विफल कर देता है।  मानव जीवन का वास्तविक ध्येय स्वयं को कृतार्थ करना है , परंतु इसके लिए धैर्य , संयम और समय ही नहीं है। हर व्यक्ति आधुनिक विकास परक व यांत्रिक युग में तनाव ग्रस्त है , जो महायंत्रो के प्रयोजन को विफल करता है।  शास्त्र के अनुसार गंतव्य का ज्ञान होने पर ही गन्ता लक्ष्य की ओर पहुंच सकता है , विज्ञान के लक्ष्य का निर्धारण नहीं है , इसीलिए वह प्रकृति की रक्षा करने में असफल है । इसके लिए सृष्टि संरचना का उद्देश्य का ज्ञान होना चाहिए । महाप्रलय के पश्चात परमात्मा द्वारा पुनः सृष्टि रचना का उद्देश्य अकृतार्थ जीवों को कृतार्थ करने का अवसर प्रदान करना है जिससे कि वह पंचभूत पृथ्वी ,जल,तेज , वायु, आकाश और प्रकृति का आलम्बन लेकर कृतार्थ हो सके, मोक्ष को प्राप्त कर सके। सृष्टि संरचना के उद्देश्य का ज्ञान होना चाहिए तभी विज्ञान को सही दिशा मिल सकती है। देहात्मवादी भौतिक शरीर को ही सबकुछ मानते हैं , परंतु गाढी़ नींद उनके सिद्धांत पर पानी फेरता है क्योंकि यदि भौतिक शरीर का ऐच्छिक सुख अर्थात प्रिय ( चाही गई वस्तु की प्राप्ति ), मोद ( चाही गई वस्तु से पूर्ण संतुष्टि )  और प्रमोद (अधिकतम संतुष्टि ) को त्यागकर जो कि विषयजन्य आनंद है , नींद की अपेक्षा रखता है , बिना नींद के विक्षिप्तता को प्राप्त कर लेगा। निष्कर्ष ये निकला कि जीवन में सिर्फ विषय जन्य आनंद ही सब कुछ नहीं हैl जीव जगत का आलम्बन लेकर ही जीवनधन जगदीश्वर की प्राप्ति कर सकता है जोकि धैर्य एवं संयम के बिना संभव नहीं।  महायंत्रो के प्रचुर आविष्कार एवं प्रयोग से हमारा जीवन न तो भोग के अनुकूल ओर न ही मोक्ष के अनुकूल रह गया है। महायंत्रो के प्रचुरता से आर्थिक विषमता एवं विपन्नता उत्पन्न हो रही है। सृष्टि के आवश्यक तत्व पृथ्वी , जल , तेज , वायु मलीन, कुपित हो रहे हैं जोकि महामारी , विश्व युद्ध , विभिन्न प्रजातियों के लोप का कारण है।

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