तत्व जिज्ञासा तत्व बोध प्राप्त कर दु:खों के आत्यन्तिक उच्छेद की भावना से है विहित – पुरी शंकराचार्य


अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी(गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी महाराज मोक्षोपलब्धि में प्रतिबन्धक तत्वों की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर से विमुख जीव उसकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति के कारण देहेन्द्रिय प्राणान्त:करण रूप अनात्म वस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता रूप विपर्यय के वशीभूत है। अनात्म भूत द्वैत में अहन्ता तथा ममता रूप अध्यास संज्ञक अभिनिवेश के कारण ही उसे मृत्यु, मूर्खता तथा दु:खप्रद भय प्राप्त है। इससे त्राण के लिये अपने गुरु को ही परम प्रेमास्पद आत्मदेव मानकर मोक्षाधिकारी साधक को वरेण्य ब्रह्म स्वरूप सर्वेश्वर का भजन करना चाहिये। मोक्षोपलब्धि में गुरु, ग्रन्थ और गोविन्द से सुदूरता तथा आत्म अनुसन्धान में शिथिलता प्रतिबन्धक है। सनातन धर्म में आहारादि रूप काम की सिद्धि के लिये अनिन्द्य कर्मरूप धर्म का सम्पादन विहित है। आहारादि में प्रवृत्ति विषयोपभोग की लम्पटता के लिये नहीं, अपितु प्राणरक्षार्थ विहित है। प्राण संधारण भगवत्  तत्त्व की जिज्ञासा के लिये विहित है। तत्त्व जिज्ञासा तत्त्वबोध प्राप्त कर दुःखों के आत्यन्तिक उच्छेद की भावना से विहित है। सनातन धर्म के अनुसार धर्म का वास्तव फल मोक्ष है। धर्मानुष्ठान से सुलभ अर्थ के द्वारा धर्मानुष्ठान और तत्त्व चिन्तन के अनुरूप जीवन की समुपलब्धि विहित है । अर्थ का विनियोग विषय लम्पटता की परिपुष्टि में निषिद्ध है। जो नियत काल तक प्राप्त होने वाले स्वर्गादि फलों को लक्ष्य करके प्रवृत्ति मार्ग का आश्रय लेते हैं, उन कर्म परायण पुरुषों के लिये यही सबसे बड़ा दोष है कि वे काल की सीमा में आबद्ध रहकर ही कर्म के फल का उपभोग करते हैं। सत्ता लोलुपता तथा अदूरदर्शिता के कारण दिशाहीन शासन तन्त्र के अधीन व्यास तन्त्र तथा शिक्षा तन्त्र, नीति और अध्यात्म विहीन दिशाहीन व्यापार तन्त्र के अधीन शासन तन्त्र भारत के पतन का प्रबल हेतु है। व्यापार तन्त्र को निगलने के लिये उद्यत सेवा और श्रम के प्रति अनास्थान्वित श्रमिक तन्त्र भारत के अति पतन का उपक्रम है। नीति तथा अध्यात्म विहीन व्यक्ति तथा समाज की संरचना और विविध विकास की परियोजना तथा परिकल्पना प्रबल प्रवञ्चना है। सनातन धर्म में सबकी जीविका जन्म से आरक्षित है। आरक्षण की वर्तमान परियोजना उभयपक्ष की प्रतिभा और प्रगति का अवरोधक है। आरक्षण में अधिकृत तथा सम्भावित व्यक्तियों की अपेक्षा स्थान की अल्पता के कारण वर्तमान आरक्षण का प्रकल्प प्रायोगिक भी नहीं है। अनधिकृत व्यक्ति तथा वर्ग में प्रतिशोध की भावना व्याप्त है।  अतएव आरक्षण की क्रियान्वित विधा राष्ट्र की परतन्त्रता तथा विपन्नता का प्रबल प्रकल्प है। भारत की नैतिक विपन्नता का कारण उस संविधान का तिरस्कार है, जिसमें शिक्षा – रक्षा – कृषि – गोरक्ष्य – वाणिज्य – सेवा और कुटीर तथा लघु उद्योग को हर व्यक्ति तथा वर्ग को सन्तुलित रूप से सुलभ कराने की अचूक विधा सन्निहित है।

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