
अरविन्द तिवारी
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्री निश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज अग्निहोत्र की महत्ता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि तीनों वेदों के मन्त्रों के संयोग से अग्निहोत्र प्रवर्तित होता है। ऋक् , यजुः और सामवेद के पवित्र मन्त्रों तथा मीमांसा सूत्रों के द्वारा अग्निहोत्र कर्म का सम्पादन किया जाता है। यजमान को आधिभौतिक , आध्यात्मिक और आधिदैविक त्रिविध तापों से त्राण करने के कारण अग्निहोत्र को अग्निहोत्र कहते हैं। जिस कर्म विशेष में देवता , हवनीय द्रव्य , मन्त्र , ऋत्विक् एवम् दक्षिणा का संयोग हो , वह यज्ञ कहा जाता है। द्रव्य तथा मन्त्रात्मक यज्ञ होता है। समतात्मक तप होता है। याज्ञिक यज्ञों से देवताओं को प्राप्त करता है और तपस्वी तप से कार्य ब्रह्मरूप विराट को प्राप्त करता है। सन्यासी कर्म संन्यास से ब्रह्मपद को प्राप्त करता है। वैराग्य से प्रकृति में लय होता है। ज्ञान से कैवल्य को प्राप्त करता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयीं हैं I ध्यान रहे – विधि पूर्वक सम्पूर्ण मन्त्रों का उच्चारण , वेदोक्त विधान के अनुसार यज्ञों का अनुष्ठान , यथायोग्य दक्षिणा , अन्न का दान तथा मन की एकाग्रता – इन पाँच अङ्गों से सम्पन्न होने पर ही यज्ञ – कर्म का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है , ऐसा यज्ञ वेत्ता वैदिक मनीषियों का कथन हैI स्व वर्णानुरूप ऋतु में अग्नि के आधान से सर्वविध उत्कर्ष सुनिश्चित है। वसन्त ऋतु वेद योनि ब्राह्मण रूप है। वसन्त ऋतु में अग्नि का आधान करने वाला ब्राह्मण वेद विज्ञान सम्पन्न ब्रह्म वर्चस्वी और श्री सम्पन्न होता है। ग्रीष्म क्षत्रिय रूप है। ग्रीष्म ऋतु में अग्नि का आधान करने वाला क्षत्रिय श्री , प्रजाज्ञ, पशु , धनज्ञ, तेज , बल और यशोवृद्धि से सम्पन्न होता है। शरत् वैश्य रूप है। उसमें वह्नि स्थापन करने वाला वैश्य श्री , प्रजा , आयु , पशु तथा धनवृद्धि से सम्पन्न होता है I न्याय उपार्जित धन अपेक्षित और अधिकृत वैदिक ब्राह्मण को अथवा अन्यों को देना दान है। वेदोक्त विधा से कृच्छ्रचान्द्रायणादि के द्वारा शरीर का शोषण तप है। जो तपस्वी नहीं है , आत्मा के ध्यान में उसकी गति नहीं है , ना उसके जीवन में कर्म की शुद्धि ही सम्भव है। तप से सत्त्व गुण की समुपलब्धि सम्भव है। सत्त्व गुण की समुपलब्धि से विवेक , वैराग्य और शमादि सम्पन्न मन की स्फूर्ति सम्भव है। विवेक , वैराग्य और शमादि सम्पन्न मन से अनात्म वस्तुओं से विविक्त आत्मा का अधिगम सम्भव है। अनात्म वस्तुओं से विविक्त आत्मा के अधिगम से जन्म बन्ध का निवारण सुनिश्चित है। आत्म स्वरूप के विज्ञान से अज्ञान का परिक्षय होता है। अज्ञान के परिक्षय से रागादि का अशेष विलोप होता है। रागादि के अशेष विलोप से पाप और पुण्य का विनाश होता है। पाप और पुण्य के विनाश से शरीर की पुन: प्राप्ति सर्वथा असम्भव है। यज्ञ , आचार , दम ( मन और इन्द्रियों का संयम ) , अहिंसा , दान और स्वाध्याय रूप कर्म – धर्म हैं ; परन्तु योग से आत्म दर्शन परम धर्म है। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही सबसे बड़ा तप है। वही सब धर्मों से श्रेष्ठतम परम धर्म बताया जाता है।