
अरविन्द तिवारी
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी जीव , जगत् और जगदीश्वर के मौलिक रूप की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि हे ईश्वर आप परमाणु और प्रधान परिभिन्न ज्योति: स्वरूप ब्रह्मरूप आद्य कारण हैं। आप ज्ञान गुणयुक्त या ज्ञान परिणाम संप्राप्त या मायानिष्ठ विक्षेप शक्ति संप्राप्त परिणामी तथा तारतम्य युक्त आत्म स्वरूप ब्रह्म नहीं , अपितु निर्गुण , निर्विकार , सत्तामात्र – एकरस निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप हैं। आप चुम्बकाश्मवत् अथवा गन्धवत् निरीह – निष्क्रिय होते हुये ही सन्निधि मात्र से जगत्कारण हैं। उक्त रीति से निर्गुण ब्रह्म की मायायोग से जगत्कारणता और लीलायोग से श्रीकृष्णादि रूप से अवतार रूपता सिद्ध है। अव्यक्त , आद्य , विभु , स्वयं ज्योति , निर्गुण , निर्विकार , सत्तामात्र , निर्विशेष निरीह की एकरूपता है। व्यक्त , कार्य , परिच्छिन्न , भास्य , सगुण , सविकार , अनित्य , सविशेष और सचेष्ट की एकरूपता है। अव्यक्तादि की तत्त्व रूपता सिद्ध है और अवता ररूपता असिद्ध। व्यक्तादि की तत्त्व रूपता असिद्ध है और अवतार रूपता सिद्ध व्यक्तादि के मूल में व्यक्तादि की मान्यता अनर्गल है , अत: व्यक्तादि का कारण अव्यक्तादि को मानना अनिवार्य है। व्यक्तादि की संज्ञा जगत् है। व्यक्तादि में समासक्त की संज्ञा जीव है। जीव तथा जगत् के नियामक की संज्ञा जगदीश्वर है। जीव , जगत् और जगदीश्वर के मौलिक रूप की संज्ञा अव्यक्तादि संज्ञक तत्त्व है। अव्यक्तादि संज्ञक तुरीय – कूटस्थ ब्रह्म तत्त्व बीजोपादान मृत्तिका तुल्य है। प्राज्ञेश्वर बीज तुल्य हैं। तेजस – हिरण्य गर्भ अंकुर तुल्य हैं। विश्व – वैश्वानर शाखा – प्रशाखा पुष्पतुल्य हैं। श्रीराम , कृष्ण तथा शिवादि फलसदृश हैं। फल में बीज और बीजोपादान सन्निहित होता है और फल अंकुरादि से विलक्षण तथा रसिकों का आकर्षण केन्द्र और भावुकों का भोग्य होता है ; तद्वत् अवतार विग्रह में कारण ब्रह्म और कारणातीत परब्रह्म सन्निहित होत है और वह प्राज्ञेश्वरादि से विलक्षण रसिकों का आकर्षण केन्द्र और भावुक भक्तों का भोग्य होता है तथा मुक्त मुनीन्द्रों का मृग्य एवम् अविद्या, काम और कर्म से असंस्पृष्ट निरावरण ब्रह्म होता है। मुक्त मुनियों के मृग्य ( अनुसन्धेय ) किसी अद्भुत फल को देव की फलती है। उसका पालन यशोदा करती है। परन्तु उस यथेच्छ उपभोग तो रासलीलादि में सन्निहित गोपियाँ ही कर पाती हैं I निर्गुण निराकार ब्रह्म का सगुण निराकार और सगुण साकार स्वरूप अवतार है। निर्गुण निराकार ब्रह्म जल , स्थल और नभ में विद्युत् – तुल्य है। सगुण – निराकार ब्रह्म पंखादि यन्त्रों के सञ्चालन में विनियुक्त विद्युत् तुल्य है। सगुण साकार ब्रह्म बल्व तथा बादल ( मेघ मण्डल ) के माध्यम से व्यक्त विद्युत् तुल्य है। श्रीहरि ने स्वयं को अज और अव्ययात्मा कहकर अपने निर्गुण – निराकार स्वरूप का प्रतिपादन किया है। उन्होंने स्वयं को भूतों का ईश्वर तथा प्रकृति का प्रयोक्ता बताकर अपने सगुण – निराकार स्वरूप का प्रतिपादन किया है। उन्होंने स्वयं को आत्म माया से सम्भव बता कर अपने सगुण – साकार स्वरूप का निरूपण किया है।