
अरविन्द तिवारी की कलम से
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी आचार्य शंकर की बालचरित की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि अपने जन्म से मातृकुल तथा पितृकुल को एवं अन्य सगे – सम्बन्धियों को आह्लादित करने वाले शंकर ने एक वर्ष की आयु में ही अपनी मातृभाषा मलयालम और उसकी लिपि सीख ली। दो वर्ष की आयु में ग्रन्थ वाचने में दक्षता प्राप्त कर ली। तीन वर्ष की आयु में शिशु काव्य , इतिहास तथा पुराण में पारङ्गत हो गया। रजोगुण – तमोगुण के लेप – चेप से रहित शंकर ने विविध लिपियों की जानकारी प्राप्त कर ली तथा सहपाठियों को पाठ पढ़ाने में दक्षता भी प्राप्त कर ली। श्रीशिवगुरु कात्यायनी देवी का नित्य पूजन करते थे। स्वादिष्ट गोदुग्ध का भगवतीक्षको भोग लगाने के पश्चात् अवशिष्ट दूध पुत्र को दे देते थे। एक दिन पिता की अनुपस्थिति में माता आर्याम्बा की आज्ञा से बालक शंकर ने देवी को दुग्ध निवेदित किया। पात्र में दूध ज्यों — के – त्यों देखकर भगवती को रुष्ट समझकर रुदन करते हुये मनाना प्रारम्भ किया। नगेन्द्र कन्या जगत् जननी भक्तवत्सला कात्यायनी ने प्रकट होकर स्वर्णपात्र में निवेदित दुग्ध को पीना प्रारम्भ किया। अपने लिये अवशिष्ट दूध न देखकर बालक रोने लगा। स्नेह के वशीभूत वात्सल्यमयी भगवती ने उसे गोद में लेकर दुलार करती हुई स्तन पान कराना प्रारम्भ किया। बालक को अद्भुत आह्लाद प्राप्त हुआ। देवी के पयोधर से विनिःसृत धवल दुग्ध की धारा ने बालक शंकर को भक्ति – विरक्ति – भगवत् प्रबोध तथा कवित्व से आप्लावित कर दिया। समय पर शिशु का चूड़ाकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। बालक के तीन वर्ष के होने पर उसके पिता उसके उपनयन के पूर्व ही दिवङ्गत हो गये। पाँचवें वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत के अनन्तर कुशाग्र बुद्धि शिशु ने अपनी लोकोत्तर प्रतिभा से भूः, भुवः स्वः व्याहृतियों के उच्चारण के अनन्तर चारों वेद तथा शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त और वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा, पाशुपत, वैष्णवादि आस्तिक प्रस्थान एवम् चार्वाक, बौद्ध, जैनागम संज्ञक नास्तिक प्रस्थान में स्वयं को पारङ्गत बना लिया। एक बार दैवयोग से एक निर्धन ब्राह्मणी के घर भिक्षा माँगने विद्यार्थी शंकर पहुँचे। सूर्य सदृश तेजस्वी बालक का दर्शन कर ब्राह्मणी अपने भाग्य की सराहना करने लगी, किन्तु उन्हें मात्र एक आँवला देती हुई अपनी निर्धनता को कोसने लगी। करुणामूर्ति दयालु शंकर ने भावविह्वल चित्त से शब्द, रस और अर्थ अलंकार परिपूर्ण मञ्जु मधुर पदावली से देवेन्द्र वन्दिता भगवती पद्मा की स्तुति की ; जोकि कनकधारा नाम से विख्यात हुई। देवी लक्ष्मी ने प्रकट होकर कहा – पूर्व जन्मों में इन्होंने अन्नादि दानरूप शुभ कार्यों का सम्पादन नहीं किया, अतः इन्हें यह दुस्सह दरिद्रता प्राप्त हुई है।करुणा सिन्धु शंकर ने कहा –हे अम्ब! तथापि मुझे इन्होंने एक आँवला श्रद्धापूर्वक प्रदान किया है, उसका फल इन्हें अवश्य मिलना चाहिये। दयार्दचित्ता भगवती रमा ने ब्राह्मणी के घर में चतुर्दिक् स्वर्ण आँवले की वर्षा की। पद्माप्रीति निकेतनेत्र भगवान् शंकर देवोपम वैभव प्रदान कर ब्राह्मणी की दरिद्रता को दूर कर गुरुकुल लौट आये।