वसुंधरा के दर्द को बयां करती ‘धरती कहे पुकार के’ 

विकसित भारत संकल्प यात्रा में ग्रामीणों को प्राकृतिक खेती के लिए किया जा रहा जागरूक

उत्तर बस्तर कांकेर (गंगा प्रकाश)। विकसित भारत संकल्प यात्रा में “धरती कहे पुकार के” गतिविधि से ग्रामीणों और किसानों को छात्राओं और स्व सहायता समूह के महिलाओं द्वारा धरती मां के दर्द को मार्मिक लघु नाटक  के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रस्तुति में धरती मां कहती हैं ” मैं हजारों साल से बिना रुके, बिना थके अपने पथ पर चल रही हूं। मैं तब भी थी जब आप लोग नही थे और तब भी रहूंगी, जब आप लोग नही रहेंगे, पर अब ऐसा लगता है कि मै थक रही हूं। आपकी धरती माँ थक रही है। खेतों में इस्तेमाल किए गए रसायनों एवं रासायनिक खाद पानी और हवा में जहर घुल रहा है। मै थक रही हूं। खेतों में इनके छिड़काव से मेरी मिट्टी वैसे ही जलती है। जैसे आपकी शरीर पर कोई तेजाब डाल दे। मेरे बच्चों को तो मेरा दुख का अंदाजा भी नही मेरी मिट्टी बंजर हो रही हूं। मिट्टी के पोषक तत्व खत्म हो रहे हैं। मेरा शरीर मिर्च की तरह जल रहा है। मेरी फसलों की पैदावर कम हो रही है। मै धीरे-धीरे थक रही हूं, लेकिन मुझे याद है पुराने जमाने में आप लोग ही तो थे,जब अपनी माँ के रखवाले थे। आप लोग प्राकृतिक खेती करते थे। आप जानते थे कि प्राकृतिक खेती परम्परा भी है जरुरत भी है और हमारे सभ्यता मे तो प्रार्थना भी धरती कल्याण की है। “नदियां, जंगल, झरने, पर्वत रखना इन्हे संभाल के, इनको रौंदा, तुम न बचोगे धरती कहे पुकार के”।

मैं मौसम की वर्षा होती कहीं पर मिट्टी बंजर बनती बंजर मिट्टी और भी तपती धरती कहे पुकार के, हजारों साल से मनुष्य धरती की गोद मे रहता आया है। धरती माँ ने आप को सब कुछ दिया लेकिन मैं आप से पूछती हूं कि आप ने अपनी धरती माँ को क्या दिया, ये जहरीले रसायन और अप्राकृतिक खाद, जो मिट्टी को बंजर कर रहे हैं, उत्पादकता को बर्बाद कर रहे हैं। रासायनिक खाद जहर समान है और तो और फसल में पानी की खपत भी बढ़ गई है, जिससे खेती की लागत बढ़ रही है और पानी का स्तर जमीन के काफी नीचे जा रहा है। बच्चो मै तुम्हारी मां हूं। मैंने तुम्हे सुख से जीने के लिए प्रर्याप्त संसाधन दिए हैं, पर तुम्हारी लालच की पूर्ति के लिए नही दिए। ऐसा लगता है थोडी सी अधिक पैदावर और अपनी लालच के लिए आप सब भविष्य के बारे मे सोचना ही भूल गए है। सोचो क्या तुम अपने बच्चो को ऐसा खेत देना चाहते हो, जो बंजर हो। मै माटी हूं। मां होना मेरे नाम मे बसा है। पोषण करने के लिए ही मैने जन्म लिया है। करोड़ो साल तक धरती पर सांसों की डोर आगे बढ़ाई, पेट भरा जब सबका, तभी मैने संतुष्टी पाई, वो मां हूं मैं सबकी,जिसने जन्म न देकर भी,जीवन संभव बनाई। अन्नदाता मेरे पुत्र किसान तुमने ही तो,  इसमें मेरा साथ निभाया। दिन रात सींच पसीने से मुझको, हर मुंह तक रोटी पहुचाई। जब तुमने माथे मुझे लगाया। मै हरियाली बनकर मुस्काई। याद रखना मिट्टी बंजर होने से और धरती के नुकसान से किसी एक देश, एक द्वीप, एक समाज या एक धर्म का नुकसान नही है बल्कि सभी का है क्योकि सभी आपस में बंधे हैं। धरती की श्रृंखला टूटी, माला टूटी सब बिखर जायेंगे। सब खत्म हो जाएंगे। धरती एक परिवार की जैसी सबका भविष्य है केवल एक। बचेगी धरती सभी बचेंगे। जीवन पथ की माला एक मेरा मालिक, माटी बना सबका रूप अनेक। बचेगी धरती सभी बचेंगे। जीवन पथ की माला एक।”

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