
रांची(गंगा प्रकाश )। आजादी मिले अभी 150 दिन भी नहीं हुए थे, देश का संविधान अभी बन ही रहा था, महात्मा गांधी जिंदा थे, देसी रियासतें और राजघराने अभी भी भारत के एकता के रास्ते के रोड़े बने हुए थे, हिन्दुस्तान पहली बार आजाद हवा में नये साल का जश्न मना रहा था, तभी 1 जनवरी 1948 को बड़ा गोलीकांड हुआ। आजाद भारत का यह पहला बड़ा गोलीकांड था। हजारों आदिवासियों की भीड़ पर ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलायी थी।
इस गोलीकांड में हुई मौत का कोई आधिकारिक दस्तावेज नहीं हैं, लेकिन कहा जाता है कि आजाद भारत के इस ‘जालियावाला बाग कांड’ में अनगिनत आदिवासियों की मौत हो गयी थी। बड़ी संख्या में लोग बुरी तरह जख्मी हुए थे, कई लोगों का अब तक अता-पता नहीं है। इसी की याद में, हर वर्ष जब दुनिया भर के लोग अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार नववर्ष का जश्न मनाते हैं, उस दिन खरसावां शहीद स्थल पहुंच कर हजारों लोग अपने पूर्वजों को नमन करते है।

क्यों हुआ था 1 जनवरी 1948 का खरसावां गोलीकांड
सरायकेला के राजा आदित्य प्रसाद देव ओडिशा में शामिल होना चाहते थे, लेकिन भाषाई और सांस्कृतिक तौर से आदिवासी किसी कीमत पर उड़िया भाषियों के साथ मिलने को तैयार नहीं थे। इसी को लेकर 1 जनवरी 1948 को खरसावां के बाजार में आमसभा आयोजित की गयी थी। सभा की इजाजत ली गयी थी और गैर अनापत्ति पत्र भी नई-नई स्थापित ओडिशा प्रशासन से लिया गया था। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था। सभा में चाईबासा, जमशेदपुर, मयूरभंज, राज ओआंगपुर और रांची के विभिन्न हिस्से से लोग पहुंचे थे। सभा शुरू होने के पहले आदिवासी नेता खरसावां के राजमहल पहुंचे और उनसे बातचीत हुई। राजा ने खरसावां को ओडिशा में शामिल करने की इजाजत दे दी थी, लेकिन आखिरी सेटलमेंट अभी लंबित था।उस दौरान आदिवासी सभा की ओर से अलग आदिवासी राज्य की मांग की जा रही थी। 1 जनवरी 1948 को दोपहर 2 बजे आदिवासी नेता महल से लौटे और सभा स्थल पहुंच कर भाषण किया। शाम 4 बजे सभा में मौजूद करीब 35 हजार लोगों को अपने घरों में लौटने के लिए कहा गया, लेकिन आधे घंटे बाद घर लौटते आदिवासियों पर ओडिशा प्रशासन ने मशीनगन से गोलियों की बौछार कर दी। करीब आधे घंटे तक फायरिंग चलती रही। सभा में आये महिला, पुरुष और बच्चों की पीठ गोलियां से छलनी हो गयी। यहां तक की गाय और बारियों को भी गोलियां लगी। खरसावां बाजार खून से लाल हो गया। इस सभा में जयपाल सिंह मुंडा को भी हिस्सा लेना था, लेकिन अंतिम क्षणों में उनका कार्यक्रम स्थगित हो गयी। बाद में आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने 11 जनवरी 1948 को खरसावां में ही एक सभा की और इस नरसंहार को आजाद भारत का जालियांवाला बाग करार दिया।
लाशों को दफन किया गया, जंगली जानवरों के लिए फेंका गया, नदियों में बहाया गया
कहा जाता है कि इस गोलीकांड के बाद नृशंसता की सारी हदें पार करते हुए शाम ढलते ही लाशों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। 6 ट्रकों में लाशों को भर कर या तो दफन कर दिया गया या फिर जंगलों में बाघ तथा अन्य जंगली जानवरों के खाले के लिए छोड़ दिया गया। कुछ लाशों को नदियों की तेज धार में भी फेंक देने की बात कही जाती है। घायलों के साथ तो और भी बुरा सलूक किया गया। जनवरी की सर्द रात में कहराते लोगों को खुले मैदान में तड़पते छोड़ दिया गया और मांगने पर पानी भी नहीं दिया गया। जयपाल सिंह मुंडा की इसी सभा में खरसावां राहत कोष का गठन किया गया, जिसमें आदिवासी नेताओं ने 1 हजार मृतकों के परिजनों और इतने ही घायलों की मदद की जिम्मेदारी उठायी। हिन्दी में हस्तलिखित ये अपील आज भी राष्ट्रीय अभिलेखागार झारखंडियों की शहादत का सबूत है।

क्यों कोल्हान के आदिवासियों के लिए काला दिवस है एक जनवरी?
1 जनवरी यानी नए साल का पहला दिन सामान्यतः लोग इस दिन नए साल के स्वागत में जश्न मनाते हैं और झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में नए साल के जश्न का मतलब है – पिकनिक, मांस-मछली, मदिरा का सेवन, तथा पार्टी गानों पर नाच। लेकिन झारखंड के कोल्हान प्रमंडल में सैकड़ों आदिवासी घर ऐसे हैं।जहां जश्न मनाना तो दूर घर के चूल्हे तक नहीं जलते। ये लोग उस दिन कुछ भी नहीं खाते, यहां के लोगों के लिए 1 जनवरी शोक दिवस है, अपने शहीदों की याद में मातम मनाने का दिन है।देश का बच्चा-बच्चा जलियांवाला बाग कांड के बारे जानता है पर कम ही लोग हैं जिन्हें खरसावां गोलीकांड में हुए नरसंहार के बारे में मालूम है। खरसावां गोलीकांड आजाद भारत में हुए जलियांवाला बाग कांड है, 1 जनवरी 1948 यानि आजादी के साढ़े 4 माह बाद जमशेदपुर के करीब खरसावां हाट में लाखों आदिवासियों पर ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की थी, जब फायरिंग रुकी तो पूरे हाट मैदान में आंदोलनकारियों के शव बिखरे थे। उड़ीसा सरकार ने सिर्फ 35 आदिवासियों के मारे जाने की पुष्टि की थी कुछ आदिवासी नेताओं के अनुसार 1000 आदिवासी मारे गए, पूर्व सांसद और महाराजा पीके देव की पुस्तक ‘मेमॉयर ऑफ ए बायगोन एरा’ में दो हजार से ज्यादा आदिवासियों के मारे जाने का जिक्र है, परंतु कोल्हान के कुछ आदिवासी संगठनों एवं आस-पास के गांव में रहने वाले लोगों से पता चलता है कि लगभग एक लाख से भी ज्यादा आंदोलनकारी खरसावां में जमा हुए थे और उड़ीसा पुलिस के आधुनिक स्टेनगनों से 30,000 से भी ज्यादा आदिवासी मारे गए थे। खरसावां हाट के बीचों बीच एक कुआं भी था जिसमें सैकड़ों आदिवासी अपनी जान बचाने के लिए कूद गए थे फायरिंग के बाद पुलिस ने उसी कुएं में मरे हुए तथा अधमरे लोगों को भरकर कुएं को बंद कर दिया।
जयपाल सिंह मुंडा द्वारा 11 जनवरी 1948 को दिए गए भाषण में बताया जाता है कि ‘जैसे ही फायरिंग खत्म हुई खरसावां बाजार में खून ही खून नजर आ रहा था। लाशें बिछीं थी, घायल तड़प रहे, पानी मांग रहे थे लेकिन ओडिशा प्रसाशन ने ना तो बाजार के अंदर किसी को आने दिया और ना ही यहां से किसी को बाहर जाने की इजाजत दी। घायलों तक मदद भी नहीं पहुंचने दी। आजाद हिन्दुस्तान में ओडिशा ने जालियांवाला बाग कांड कर दिया। यही नहीं नृशंसता की सारी हदें पार करते हुए शाम ढलते ही लाशों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। 6 ट्रकों में लाशों को भरकर या तो दफन कर दिया गया या फिर जंगलों में बाघों के खाने के लिए फेंक दिया गया । नदियों की तेज धार में लाशें फेंक दी गई। घायलों के साथ तो और भी बुरा सलूक किया गया, जनवरी की सर्द रात में कराहते लोगों को खुले मैदान में तड़पते छोड़ दिया गया और मांगने पर पानी तक नहीं दिया गया।’ इस घटना में मारे गए लोगों की संख्या एवं घायल लोगों की संख्या की जानकारी कहीं भी स्पष्ट रूप से नहीं मिलती है। सरकारों द्वारा इस घटना पर पर्दा डालने की भरपूर कोशिश की गई।
आंदोलनकारियों के जमा होने के मुख्य कारण
कई पुस्तकों, लेखों एवं लोगों के द्वारा यह जानकारी मिलती है कि गोलीकांड का मुख्य कारण था खरसावां के उड़ीसा राज्य में विलय का विरोध करना। अनुज कुमार सिन्हा की पुस्तक ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज’ के अनुसार ‘आदिवासी (झारखंड में रहनेवाले कुछ अन्य समूह भी) नहीं चाहते थे कि खरसावाँ रियासत का ओडि़शा में विलय हो। वे झारखंड (तब का बिहार) में ही रहना चाहते थे। पर केंद्र के दबाव में सरायकेला के साथ-साथ खरसावाँ रियासत का ओडि़शा में विलय करने का समझौता हो चुका था। 1 जनवरी, 1948 से यह समझौता लागू होना था, उसी दिन सत्ता का हस्तांतरण होना था। झारखंडी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने इसका विरोध करते हुए आदिवासियों से खरसावाँ पहुँचने और विलय के विरोध करने का आह्वान किया था। उन्हीं के आह्वान पर लगभग 50 हजार आदिवासी खरसावाँ में जमा हुए थे। इस सभा में भाग लेने के लिए जमशेदपुर, राँची, सिमडेगा, खूँटी, तमाड़, चाईबासा और दूरदराज के इलाकों से आदिवासी अपने पारंपरिक हथियारों के साथ खरसाँवा पहुँच चुके थे।’ यह बातें सत्य हैं पर सत्य कुछ और भी है जिनको सामने नहीं लाया गया है।
खरसावां गोलीकांड पर हमेशा लोगों को भ्रमित किया गया है, थोड़ा शोध करके स्थानीय संगठनों, विभिन्न गांव के लोगों एवं समाजसेवियों से जानने तथा सुनने के बाद यह बात सामने आती है कि खरसावां में जुटे आंदोलनकारी सिर्फ ओडिशा में विलय का ही विरोध नहीं कर रहे थे बल्कि इस सभा में जुटने का प्रमुख कारण अलग झारखंड की मांग पर चर्चा करना था। झारखंड राज्य बने 21 साल ही हुए हैं लेकिन अलग झारखंड राज्य की मांग 1911-12 से ही शुरू हो चुकी थी 40 और 50 के दशक में जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में यह मांग सबसे जोरों पर थी। उस वक्त झारखंड में जयपाल सिंह मुंडा एक बड़े नेता के रूप में उभर चुके थे और उन्हीं के आह्वान पर कोल्हान के लोग उन्हें देखने और उन्हें सुनने, खाने-पीने का सामान पीठ में बांधकर अपने गांव से पैदल ही निकल चुके थे, परंतु ओडिशा और केंद्र की सरकारें नहीं चाहती थी कि यह सभा हो, कहा जाता है कि जयपाल सिंह जी को छल से आनन-फानन में दिल्ली बुला लिया जाता है जिसके कारण वे खरसावां नहीं पहुंच पाते हैं। ओडिशा पुलिस पहले से ही इस क्षेत्र को छावनी के रूप में तब्दील कर चुकी होती है। लाखों की संख्या में मौजूद भीड़ अपने ‘मारंग गोमके’ (जयपाल सिंह मुंडा) को देखने के लिए बेताब हो रही थी, अचानक ही पुलिस के द्वारा फायरिंग शुरू हुई, किसी को संभलने का मौका तक ना मिला, कुछ लोगों ने अपने पारंपरिक हथियारों से मुकाबला करना चाहा पर पुलिस की स्टेनगन के सामने वह भी टिक नहीं पाए और देखते ही देखते लाशों का ढेर लग गया।
अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर सिमको गोलीकांड से लेकर खरसावां, गुवा, तिरूल्डीह, सेरेंगदा, जायदा, करगली तक अनेकों स्थानों में आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग हुई लेकिन उन सब में बर्बर रहा है खरसावां का गोलीकांड। इस गोलीकांड की जांच के लिए ट्रिब्यूनल का गठन भी किया गया था पर उसकी रिपोर्ट अभी तक सामने नहीं आई है।
खरसावां अब झारखंड का राजनीतिक तीर्थ बन गया है इस गोलीकांड के बाद
सरायकेला-खरसावां का ओडिशा में विलय होने से रोक दिया गया, जिस हाट पर यह नरसंहार हुआ उसे अब तब्दील करके शहीद पार्क बना दिया गया है. एवं जिस कुएं में शवों को भरकर बंद कर दिया गया था उसी के ऊपर शहीद वेदी बनाया गया है। प्रत्येक साल 1 जनवरी को यहां पारंपरिक तरीके से पूजा अर्चना के साथ श्रद्धांजलि दी जाती है मुख्यमंत्री से लेकर झारखंड के अनेक बड़े-बड़े नेतागण यहां श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं। कोल्हान प्रमंडल से आम लोग भी लाखों की तादाद में पारंपरिक वेशभूषा में आकर नम आंखों से श्रद्धांजलि देते हैं। आसपास के जिस-जिस गांव के लोग शहीद हुए थे पहले उस गांव में पूजा अर्चना कर श्रद्धांजलि दी जाती है और फिर लोग खरसावां की और आते हैं। एक तरफ श्रद्धांजलि देने का दौर चलते रहता है तो दूसरी तरफ नेताओं के आश्वासनों का दौर भी दिन भर चलते रहता है प्रत्येक पार्टी के बड़े-बड़े पोस्टर एवं होर्डिंग्स लगे होते हैं लेकिन कहीं भी शहीदों के तस्वीर या उनके नाम नहीं होते हैं। नेताओं द्वारा प्रत्येक साल शहीदों की बेहतरी के लिए अनेक आश्वासन मिलते हैं पर कभी भी यह आश्वासन धरातल पर नहीं उतरे हैं।