
छत्तीसगढ़ में सबसे बड़े मेडिकल घोटाले में सौमित्र चौरसिया स-शरीर शामिल, कई कंपनियों हैं साइलेंट पार्टनर

रिपोर्ट:मनोज सिंह ठाकुर
रायपुर(गंगा प्रकाश)। औषधि एवं शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी की भारत में सदियों पुरानी समृद्ध परंपरा रही है। समय के साथ नवाचारों से यह परंपरा और निखरती गई। इसका ही परिणाम है कि आज भारत को ‘दुनिया के दवाखाने’ की प्रतिष्ठा प्राप्त है। आयुर्वेद के प्राचीन ज्ञान से लेकर सुश्रुत के उत्कृष्ट कार्य तक चिकित्सा क्षेत्र में भारत ने एक स्थायी एवं गहरा प्रभाव छोड़ा है। इस सशक्त बुनियाद ने देश को आधुनिक चिकित्सा में भी प्रगति की ओर उन्मुख किया है। इसके आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में शोध एवं विकास को गति मिली, जिसका लाभ दवाओं, जैव-प्रौद्योगिकी और स्वास्थ्य उपकरणों के विकास में हुआ।
आज भारत विश्व दवा उद्योग का प्रमुख खिलाड़ी है, जो उच्च गुणवत्ता वाली किफायती दवाएं उपलब्ध करा रहा है। ये दवाएं विकसित एवं विकासशील देशों के करोड़ों लोगों तक पहुंच रही हैं। इनसे विश्व भर में स्वास्थ्य की दशा-दिशा सुधारने में बड़ी सफलता मिली है। भारत में कुशल कामकाजी आबादी, मजबूत शैक्षणिक ढांचा और सरकारी प्रोत्साहक नीतियों से चिकित्सा और दवाओं के क्षेत्र में अत्याधुनिक शोध एवं नवाचार के लिए अनुकूल परिवेश भी तैयार हुआ है।

देश में दवा उद्योग के निरंतर विस्तार और विश्व बाजार में उसकी गहरी होती पैठ की पुष्टि निर्यात के आंकड़ों से होती है। वर्ष 2013-14 से 2021-22 के बीच भारतीय दवा उद्योग का निर्यात 90,415 करोड़ रुपये से 103 प्रतिशत की वृद्धि के साथ बढ़कर 1,83,422 करोड़ रुपये हो गया। महज आठ वर्षों में इस उद्योग का आकार 10 अरब डालर तक पहुंचना दवा क्षेत्र में भारत की प्रगति और विश्व स्तर पर उसकी मजबूती को दिखाता है। यह अप्रत्याशित तेजी भारत के दवा क्षेत्र की ताकत के साथ ही सरकार द्वारा तैयार किए गए अनुकूल परिवेश की कहानी भी कहती है। सक्रिय एवं गतिशील नीतियों ने दवा क्षेत्र के लिए एक ऐसा तंत्र विकसित किया कि वह फल-फूलकर वैश्विक स्तर पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ने में सक्षम हो सके।

इस कहानी को और शानदार बनाने के लिए सरकार ने उत्पादन आधारित प्रोत्साहन यानी पीएलआइ जैसी योजना पेश की, जिसमें दवा उद्योग के साथ ही उसमें उपयोग आने वाली कच्ची सामग्री के विनिर्माण को बढ़ावा दिया गया। इसने देश में जेनेरिक दवा उद्योग विनिर्माण को नया आयाम दिया। दरअसल, जब दवाओं का ब्रांड पेटेंट समाप्त हो जाता है तो इससे अन्य निर्माता भी इन दवाओं को उत्पादन कर सकते हैं, जिन्हें जेनेरिक दवा कहते हैं। इन दवाओं में तत्व तो वही होते हैं, लेकिन इनकी लागत करीब 30 से 80 प्रतिशत तक कम होती है। किफायती होने की वजह से ये एक बड़ी आबादी की पहुंच में सहजता से आ जाती हैं। भारत इस समय विश्व में जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा उत्पादक देश है।

नि:संदेह, जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता को लेकर कुछ चिंता व्यक्त की जाती है। बड़ी संख्या में विनिर्माताओं की मौजूदगी और बाजार के प्रतिस्पर्धी स्वरूप को देखते हुए कुछ कंपनियां आवश्यक मानकों की अनदेखी करती हैं, जिससे घटिया दवाएं बाजार में पहुंचकर मरीजों की सेहत के लिए खतरा उत्पन्न करती हैं। हाल के दिनों में देश में निर्मित मिलावटी कफ सिरप का मामला सुर्खियों में रहा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे में दवा नियामक ड्रग्स कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया यानी डीसीजीआइ की सख्ती स्वागतयोग्य है। पिछले महीने ही डीसीजीआइ ने व्यापक निगरानी के बाद घटिया एवं मिलावटी दवाएं बनाने वाली 18 से अधिक दवा कंपनियों के लाइसेंस रद करने से लेकर उनके निलंबन तक की कार्रवाई की। इस पर कुछ लोगों को लग सकता है कि इससे कंपनियों पर अनुपालन का बोझ एवं दबाव बढ़ जाएगा। हालांकि, ऐसी स्थिति से बचने के लिए स्व-नियमन की प्रक्रिया बेहतर होती है, लेकिन अक्सर उसमें मानकों की अनदेखी हो जाती है, जिसके घातक परिणाम देखने को मिलते हैं। इससे साख पर भी कालिख लगती है। ऐसी ही कालिख पूर्ववर्ती भूपे सरकार ने छत्तीसगढ़ महतारी के दामन पर लगाया हैं।जब जब जहां भी मौका मिला जनता की गहढ़ी कमाई को लूटने में इनके सगरिदों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ा हैं।छत्तीसगढ़ में सरकारी कार्यकर्ताओं की व्यवस्था और उनपर जनता का विश्वास कायम करना राज्य की भाजपा सरकार के लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही है। पिछले 5 सालों में स्वस्थ्य सेवाएं जहां लाचार हुई है, वही गुणवत्ताविहीन और घटिया दवाओं को बाजार भाव से 500 गुना अधिक कीमत पर सरकार ने सालाना खरीदा है। गुणवत्ताविहीन दवाओं की खरीद सीधे तौर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री की उप सचिव सौम्या चौरसिया खुद करती थी। इसमें यह भी पाया गया है कि दवाओं की खरीद को लेकर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव की सहमति के आधार पर सरकारी प्रतिभूतियों की प्रक्रिया पूरी की गई थी।
वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर निपुण अधिकारियों को क्रय संबंधी प्रक्रिया का पालन करने का यह आदेश है कि यह कुकी फ़ौरन उपलब्ध कराई जाए। नतीजतन, स्वास्थ्य विभाग के गोदामों में घटिया दवाओं का अंबर लगाना रोजमर्रा की बात हो गई थी। इधर घटिया दवाओं की आपूर्ति से उचित को ना तो अपेक्षित स्वास्थ्य लाभ मिला और ना ही उनका समाधान ठीक हुआ। छत्तीसगढ़ में पूर्व भूपे बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा दिए गए अरबों के मेडिकल घोटाले की खबरें अब सामने आई हैं।

सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि बाजार में पांच से दस रुपये में मेडिकल उपकरण भूपे राज में दो-दो हजार रुपये में तैयार किए गए थे। इसके अलावा चिकित्सा उपकरणों में उपयोग किए जाने वाले रसायन भी बाजार दर से हजारों गुना अधिक कीमत पर बनाए गए। जरूरतमंद न होने के बावजूद भी इसकी बेजा खरीदारी की गई थी। भूपे सरकार के दौरान स्वास्थ्य सेवा में अरबों के घोटालों से स्वास्थ्य विभाग का पूरा ढांचा चरमरा गया है। इस घोटाले के मास्टरमाइंड मोक्षित कॉरपोरेशन को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग के सीएमएससीएल के अधिकारियों पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
बताता है कि जेल में बंद सौम्या चौरसिया ने अपने विश्वासपात्र अधिकारियों से संपर्क कर मामले की फाइल से कई दस्तावेज उड़ाए हैं। के अनुसार उपकरणों में दवाओं की खरीद से जुड़ी प्रशासनिक संरचना भी शामिल है। बताया जाता है कि आधे अधूरे इन दस्तावेजों में तत्कालीन विभागीय मंत्री टीएस सिंहदेव के फर्जी हस्ताक्षर भी हो सकते हैं। सूत्र तस्दीक कर रहे हैं कि सीएमएससीएल में दवाओं की खरीद से जुड़ी फाइल सौम्या चौरसिया खुद डील करती थी। अंदेशा जाहिर किया जा रहा है कि कई विभागीय पंजीकरण में तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपे बघेल के फर्जी हस्ताक्षर उनके बेटे और सौम्या चौरसिया के ही हैं। हालांकि मामले का खुलासा उच्च स्तरीय जांच के बाद ही होगा।



छत्तीसगढ़ स्वास्थ्य विभाग में तमाम घोटाले और भ्रष्टाचार के कई बड़े पैमाने पर मामले सामने आए हैं, जिसका पूरा आंकड़ा कलकलेटर तक नहीं आ रहा है। बताता है कि मोक्षित कारपोरेशन की साइलेंट पार्टनर की भूमिका में सौम्या चौरसिया काम कर रही थी। इसके चलते इस कंपनी ने घटिया सामग्री की आपूर्ति के ढेरों दामों पर जारी रखा था। जबकि इन्फ्टैक्ट जांच पण्डाल के घटिया माल सीएमएससीएल के माध्यम से गोदामों में भर दिया जाता था। इसके बाद उनकी आवश्यकताएं न होने पर भी उनकी वर्षों दर वर्ष मांग दिखाई देती थी।

हालांकि इस घोटाले के उजागर होते ही उनके उप सचिव ने मोर्चा संभाल लिया था। शिकायत के बावजूद मामले की जांच तक नहीं की गई। विधानसभा सत्र में इस मामले को लेकर तत्कालीन अंबिकापुर विधायक ने सवाल भी उठाया था।
बताते हैं कि ध्यानाकर्षण भी लगा पर सौम्या के हस्तक्षेप से अभी तक इसका उत्तर नहीं भेजा गया। सीजीएमएससी में पदस्थ कई पुराने अधिकारियों का मोक्षित निगमन से सीधा आर्थिक लेन-देन बताया जाता है। बताते हैं कि यह स्टाफ़ सौंफ़ के लिए बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य विभाग में रसायन सहित अन्य दवाओं कीखानी का ब्यौरा तैयार करता था।
जानकारी के अनुसार रीग 197 ईटीडीए ट्यूब एडल्ट जो कि खुले बाजार में अधिकतम 8.50 रुपए में उपलब्ध है, उसे मोक्षित कार्पोरेशन से 2352 रुपए प्रति लिया गया। स्वास्थ्य विभाग की 2022 जनवरी से 31 अक्टूबर 2023 तक अरबों रुपये की खरीद मोक्षित कार्पोरेशन से साठ-गांठ कर दी गई थी। इसमें राज्य सरकार को हजारो करोड़ की चपत लगी। बताते हैं कि स्वास्थ्य विभाग ने अपनी बजट राशि से 4 गुना अधिक राशि का रीएजेंट खरीदा है। इसकी भी जांच कराई गई है।
शिकायतकर्ता ने छत्तीसगढ़ मेडिकल सर्विसेज कार्पोरेशन में पिछले 5 वर्षों की भ्रष्टाचार की जांच की मांग की है। शिकायत के अनुसार पूर्व मुख्यमंत्री भूपे बघेल के करीबी रिश्तेदारों को अकेले स्वास्थ्य विभाग से तत्कालीन आयोग ने हर माह करोड़ो रूपये मिले थे। जबकि तत्कालीन उप सचिव सौमित्रा चौरसिया दवाओं की आपूर्ति का बिल बनाने के लिए दिन रात एक कर देती थी। माना जा रहा है कि नए स्वास्थ्य मंत्री और भाजपा की नई सरकार गरीबों और जरूरतमंदों तक गुणवत्ता वाली दवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने में जोर देगी।
दवाओं की गुणवत्ता, इसे लेकर कहीं कोई सवाल न उठने पाए
भारत जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है और दुनिया के जेनेरिक उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत आपूर्ति करता है।
यह तथ्य चकित करने वाला है कि दवा बनाने वाली कंपनियों के लिए गुणवत्ता नियंत्रण का कोई नियम नहीं है और स्वयं कंपनियां ही अपनी दवाओं की गुणवत्ता का सत्यापन करती हैं। यह ठीक नहीं और ऐसे समय तो बिल्कुल भी नहीं, जब दवाओं की गुणवत्ता को लेकर दुनिया भर में जागरूकता बढ़ रही है। चूंकि भारत एक बड़ा दवा निर्यातक देश है और उसे विश्व का औषधि कारखाना कहा जाता है, इसलिए सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह दवा कंपनियों के लिए क्वालिटी कंट्रोल का कोई भरोसेमंद नियम बनाए। इस नियम के दायरे में निर्यात होने वाली दवाएं भी आनी चाहिए और देश में बिकने वाली दवाएं भी, क्योंकि नकली और खराब गुणवत्ता वाली दवाएं बिकने की शिकायतें आती ही रहती हैं।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि पिछले दिनों विदेश व्यापार महानिदेशालय ने एक अधिसूचना जारी कर कहा कि एक जून से कफ सिरप निर्यातकों को विदेश भेजने के पहले अपने उत्पादों का निर्धारित सरकारी प्रयोगशालाओं में परीक्षण कराना आवश्यक होगा। प्रश्न यह है कि यह नया नियम केवल खांसी के सिरप पर ही क्यों लागू हो रहा है? क्या इसलिए कि पिछले वर्ष गांबिया और उज्बेकिस्तान में भारतीय दवा कंपनियों की ओर भेजे गए कफ सिरप में खामी पाई गई? विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारतीय कंपनियों की ओर से इन देशों में निर्यात किए गए कफ सिरप से कुछ बच्चों की मौत का भी दावा किया। यद्यपि इस दावे को भारत ने चुनौती दी, लेकिन देश से निर्यात होने वाले कफ सिरप की गुणवत्ता को लेकर विश्व के कुछ देशों में संशय पैदा होना स्वाभाविक है।यह ठीक है कि विदेश व्यापार महानिदेशालय ने कफ सिरप के मामले में एक आवश्यक कदम उठाया, लेकिन ऐसा कदम तो निर्यात होने वाली सभी दवाओं के मामले में उठाया जाना चाहिए। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ समय पहले एक भारतीय फार्मा कंपनी की ओर से अमेरिका भेजी गई आई ड्राप में खामी मिलने की बात सामने आई थी।भारत जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है और दुनिया के कुल जेनेरिक उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत आपूर्ति करता है। भारत के दवा उद्योग की व्यापकता को इससे समझा जा सकता है कि देश में तीन हजार से ज्यादा दवा कंपनियां हैं, जो दस हजार से ज्यादा फैक्ट्रियों के जरिये दवाओं का उत्पादन करती हैं। 2014 से 2022 के बीच भारत का दवा निर्यात दोगुने से भी ज्यादा बढ़कर 24.6 अरब डालर के स्तर पर पहुंचा।
स्पष्ट है कि भारत को अपने दवा उद्योग की साख को बचाने के लिए हरसंभव जतन करने होंगे। जिस तरह विदेश व्यापार महानिदेशालय कफ सिरप के निर्यात के मामले में सक्रिय हुआ, उसी तरह औषधि महानियंत्रक को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश में बनने वाली दवाओं की गुणवत्ता को लेकर कहीं कोई सवाल न उठने पाए।