श्रीराम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि – गोस्वामी तुलसीदासजी

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट 

रायपुर (गंगा प्रकाश)। हर साल की तरह श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि आज यानि 11 अगस्त रविवार को हिन्दू परंपरा में सबसे प्रतिष्ठित कवि-संतों में से एक गोस्वामी तुलसीदास की 527वीं जयंती मनाई जायेगी। धर्मग्रंथों के अनुसार श्रीराम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि एवं श्रीरामचरितमानस के रचयिता महान संत गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म संवत 1554 में श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ। इनके माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्माराम दुबे था , उन्होंने जन्म लेते ही राम बोला था इसलिये इनके माता-पिता ने इनका नाम रामबोला रखा। आचार्य शेषसनातनजी इनके गुरु थे , उन्हीं के पास रहकर इन्होंने वेदों का अध्ययन किया। इनका विवाह 29 वर्ष की आयु में रत्नावली के साथ हुआ , ये अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा प्रेम करते थे। शादी के बाद तुलसीदासजी की पत्नी एक बार मायके चली गई थी , पत्नी वियोग में तुलसीदासजी भी तेज बारिश और तूफान में रात को उनके पीछे चल दिये।‌ तब पत्नी रत्नावली ने कहा – अस्थि चर्म मय देह यह , ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से , तो काहे भव-भीत। अर्थात – हड्डी और मांस के इस शरीर से इतना प्रेम।‌ अगर इतना ही प्रेम तुमने श्रीराम से किया होता तो ये जीवन सुधर जाता। पत्नी की बात सुनते ही तुलसीदासजी का अंतर्मन जाग उठा और फिर उन्होंने अपना सारा जीवन श्रीराम की भक्ति में व्यतीत किया। भगवान शंकरजी ने श्री रामजी के चरण कमलों में नित्य-निरंतर अनन्य भक्ति प्राप्त होने के लिये जिस दुर्गम मानस रामायण की रचना की और उस मानस रामायण को श्री रघुनाथजी के नाम में समा कर अपने अंतकरण के अंधकार को मिटाने के लिये तुलसीदासजी ने मानस के रूप में भाषाबद्ध किया। यह रामचरित मानस पुण्य रूप , पापों का हरण करने वाला , सदा कल्याणकारी , विज्ञान और भक्ति को प्रदान करने वाला , मोह और माया का नाश करने वाला , कलियुग के समस्त पापों का नाशक , अतिशुभ , मंगलमय तथा कल्याणकारी है। तुलसीदासजी का अधिकांश जीवन चित्रकूट , काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ। कलियुग में ही इन्हें भगवान राम और लक्ष्मण जी के दर्शन हुये। एक बार काशी में इनकी भेंट एक प्रेत से हुई। प्रेत ने इन्हें हनुमानजी के दर्शन प्राप्त करने का उपाय बताया। बड़े प्रयासों से इन्हें हनुमान जी के दर्शन हुये। हनुमान जी के दर्शन होने के पश्चात तुलसीदास जी ने हनुमानजी से प्रार्थना की कि वे उन्हें भी श्रीरामजी के दर्शन करवा दें। सर्वप्रथम तो हनुमानजी ने तुलसीदास जी को बहलाने का प्रयास किया परंतु तुलसीदासजी की रघुनाथजी के प्रति अनन्य भक्ति एवं निष्ठा देख कर हनुमानजी बोले कि उन्हें प्रभु राम के दर्शन चित्रकूट में होंगे। एक बार जब तुलसीदासजी चित्रकूट के घाट पर लोगों को चंदन लगा रहे थे , तभी एक बालक भी उनके पास चंदन लेने आया। तब हनुमानजी ने तोते के रूप में आकर कहा कि- ‘चित्रकूट के घाट पर , भई सन्तन की भीर। तुलसीदास चन्दन घिसें , तिलक देत रघुबीर। तुलसीदासजी समझ गये कि ये बालक और कोई नहीं बल्कि स्वयं भगवान श्रीराम हैं। इस तरह तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम के दर्शन हुये। प्रयागराज में तुलसीदासजी को भारद्वाज ऋषि तथा याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुये। भगवान शंकर तथा माता पार्वतीजी ने तुलसीदासजी को दर्शन देकर कहा कि तुम अयोध्या जाकर रहो वहां सरल भाषा में काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी रचना सामवेद के समान फलवती होगी। तुलसीदासजी भगवान गौरी शंकर की आज्ञा को शिरोधार्य मान कर अयोध्या गये और श्री रामनवमी के दिन श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की। दो वर्ष , सात महीने और छब्बीस दिन में संवत 1633 मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष की विवाह पंचमी (राम विवाह) के दिन श्रीरामचरितमानस के सातों कांड पूर्ण हुये। उनके द्वारा रचित मानस , विनय पत्रिका , हनुमान चालीसा जन-जन तक पहुँच चुका है। इसके अलावा गीतावली , कवितावली , कृष्ण गीतावली , रामाज्ञा प्रश्नावली , हनुमान बाहुक भी उनके ही ग्रंथ हैं। कहा जाता है कि तुलसीदास को हनुमान चालीसा लिखने की प्रेरणा मुगल सम्राट अकबर की कैद से मिली थी। मान्यता है कि एक बार मुगल सम्राट अकबर ने गोस्वामी तुलसीदासजी को शाही दरबार में बुलाकर अपनी तरीफ में उन्हें ग्रंथ लिखने को कहा। लेकिन तुलसीदास ने ग्रंथ लिखने से मना कर दिया और  अकबर ने उन्हें कैद करके कारागार में डाल दिया। तुलसीदास ने सोचा की उन्हें इस संकट से केवल संकटमोचन ही बाहर निकाल सकते हैं , तब चालीस दिन कैद में रहने के दौरान तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की रचना की और उसका पाठ किया।‌ चालीस दिनों के बाद बंदरों के एक झुंड ने अकबर के महल पर हमला कर दिया , जिसमें बड़ा नुकसान किया। तब मंत्रियों की सलाह मानकर बादशाह अकबर ने तुलसीदास को कारागार से मुक्त कर दिया।भगवान श्रीराम के इस परम पावन और सुहावने चरित्र को भगवान शिव ने रचा , फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने राम भक्त और अधिकारी जान कर काकभुशुंडिजी को प्रदान किया। काकभुशुंडिजी से मुनि याज्ञवल्क्यजी ने पाया। याज्ञवल्क्यजी से भरद्वाज ऋषि ने प्राप्त किया और कलियुग में उस पावन श्रीराम कथा को श्रीरामचरित मानस के रूप में रचकर संत तुलसीदासजी ने जन जन तक पहुँचाया।तुलसीदास की मृत्यु विक्रम संवत 1680 का श्रावण मास को गंगा नदी के तट पर अस्सी घाट पर हुई। कवि तुलसीदासजी की प्रतिभा की किरणों से ना केवल हिन्दू सनातन समाज बल्कि समस्त संसार आलोकित हो रहा है। अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। परब्रह्म श्री राम जिन्हें वेदों ने भी नेति-नेति कह कर पुकारा उनकी पावन कीर्ति लोकभाषा में लिख कर हिन्दू सनातन धर्म पर महान उपकार किया। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदासजी ने आज श्रीरामचरितमानस के माध्यम से जन-जन के हृदय पटल पर ज्ञान की ज्योति जगायी है तथा घर-घर में वैदिक मर्यादा का ज्ञान उद्भासित अथवा सुशोभित हो रहा है।

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