
रायपुर (गंगा प्रकाश)। भारतीय संस्कृति में सभी व्रतों का अलग-अलग महत्व है। पारंपरिक हिंदू पंचांग में हलषष्ठी एक महत्वपूर्ण त्यौहार है , जो भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। यह माता देवकी और वासुदेव के सातवें संतान एवं भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम को समर्पित है , जिसे भगवान बलराम की जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये श्रीसुदर्शन संस्थानम , पुरी शंकराचार्य आश्रम /मीडिया प्रभारी अरविन्द तिवारी ने बताया कि बलरामजी का मुख्य शस्त्र मूसल है , इस पर्व का नाम उन्हीं के नाम पर हलषष्ठी रखा गया है। भगवान बलराम को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता है , जो क्षीरसागर में भगवान विष्णु के हमेशा साथ रहने वाली शैय्या के रूप में जाने जाते हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में इस व्रत को हलषष्ठी , ललही छठ , बलदेव छठ , रंधन छठ , हलछठ , हरछठ व्रत , चंदन छठ , तिनछठी , तिन्नी छठ के नामों से भी जाना जाता है। हलषष्ठी व्रत महिलायें अपने संतान की दीर्घायु व सुख समृद्धि के लिये रखती हैं। धार्मिक मान्यता है कि ऐसा करने से भगवान हलधर उनके पुत्रों को लंबी आयु प्रदान करते हैं। मान्यता है कि यह व्रत देवर्षि नारद के कहने पर भगवान श्रीकृष्ण की मां देवकी द्वारा संपादित किया व्रत है। माता देवकी के छह पुत्रों को जब कंस ने मार दिया तब पुत्र की रक्षा की कामना के लिये माता देवकी ने भादो कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को षष्ठीदेवी की आराधना करते हुये व्रत रखा था। वहीं एक अन्य कथा के अनुसार अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने हलषष्ठी का व्रत किया था, जिससे उनका पुत्र परीक्षित जीवित रहा। महिलायें अपने पुत्र की रक्षा के लिये यह त्यौहार बड़े उत्साह के साथ पुरे विधि विधान से करती हैं। इस दिन सुहागिन महिलायें पति की दीघार्यु और कुंवारी कन्यायें सुयोग्य वर की कामना के उद्देश्य से व्रत करती है , वहीं नि: संतान मातायें यह व्रत पुत्र की मनोकामना के लिये भी करती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन व्रत करने वाली महिलायें संतान की सुख-समृद्धि व दीर्घायु होने की मनोकामना हेतु पूरा दिन निर्जला व्रत रखती है और रात्रि को चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करती हैं। इस व्रत का पालन करने वाली महिलायें इस दिन महुआ की दातून करती हैं , हल से जुती हुई सामाग्री अर्थात अनाज – सब्जी नहीं खा सकती , ना ही गाय का दूध अथवा घी खा सकती हैं। इस दिन उन्हें तालाब या मैदान में पैदा हुये जैसे तिन्नी का चांवल , पसही के चांवल और केवल वृक्ष पर लगे खाद्य पदार्थ खाने की अनुमति होती हैं। इस व्रत में गाय के किसी भी उत्पाद जैसे दूध , दही , गोबर आदि का प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि इस व्रत में भैंस का दूध , दही , घी का इस्तेमाल किया जाता है। इस दिन व्रती महिलायें दोपहर से शाम तक मंदिरों या घर में ही सामूहिक रूप से तालाब बनाकर उसमें झरबेरी , पलाश और कांसी के पेड़ लगाती हैं और वहां पर बैठकर मिट्टी से भगवान शंकर – पार्वती , गणेश – कार्तिकेय , नंदी , बांटी ,भौंरा एवं शगरी बनाकर विधि विधान से पूजा अर्चना कर हलषष्ठी माता की कथा सुनती हैं। उसके बाद प्रणाम करके सूर्यास्त होने के पूर्व पूजा समाप्त करती हैं और पसहर चांवल के साथ छह प्रकार के भाजी का सेवन कर व्रत तोड़ती हैं। बता दें कि पसहर चांवल खेतों में नही उगाया जाता बल्कि यह चांवल बिना हल जोते अपने आप खेतों की मेंड़ , तालाब , पोखर या अन्य जगहों पर उगता है। इस दिन बलदाऊ के जन्मोत्सव मनाये जाने के कारण बलदाऊ के शस्त्र हल को महत्व देने के लिये बिना हल चलाये उगने वाले पसहर चांवल का इस्तेमाल किया जाता है। इस दिन महिलायें अपनी संतान की दीर्घायु के लिये पुत्र के बायें कंधे एवं पुत्री के दायें कंधे में छह – छह बार नये कपड़े के कतरन को शगरी में डुबाकर चिन्ह लगाती हैं जिससे उनकी संतान को भगवान का आर्शीवाद प्राप्त होता है।
पूजन में छह का महत्व
हलषष्ठी में छह की संख्या का महत्व है। भाद्रपद की षष्ठी तिथि को मनाये जाने वाले पर्व में छह प्रकार की भाजी , छह प्रकार के खिलौने , छह प्रकार के अन्न वाला प्रसाद व छह कथा सुनी जाती है। इसके अलावा पूजन में पसहर चावल के साथ छह प्रकार की भाजी की सब्जी और मिर्ची , भैंस का दूध , दही , घी , सेंधा नमक , महुआ पेड़ के पत्ते का दोना उपयोग किया जाता है। इस दिन कई क्षेत्रों में बच्चों को प्रसाद के रूप में धान की लाई , भुना हुआ महुआ , चना , गेहूं , अरहर , छह प्रकार का अनाज मिलाकर भी बांटा जाता है।
हलषष्ठी व्रत कथा
श्रुति स्मृति पुराणों में वर्णित कथानुसार एक ग्वालिन थी जो दूध दही बेचकर अपना जीवन व्यापन करती थी , वह गर्भवती थी। एक दिन जब वह दूध बेचने जा रही थी तभी उसे प्रसव का दर्द शुरू हुआ , वह समीप पर एक पेड़ के नीचे बैठ गई जहाँ उसने एक पुत्र को जन्म दिया। ग्वालिन को दूध ख़राब होने की चिंता थी इसलिये अपने पुत्र को पेड़ के नीचे सुलाकर वो गाँव में दूध बेचने चली गई। उस दिन हलषष्ठी व्रत था , सभी को भेंस का दूध चाहिये था। ग्वालिन के पास केवल गाय का दूध था , उसने झूठ बोलकर सभी को भेस का दूध बताकर पूरा गाय का दूध बेच दिया। इससे हर छठ माता क्रोधित हो गई और उसके पुत्र के प्राण हर लिये। जब ग्वालिन आई उसे अपनी करनी पर बहुत संताप हुआ और उसने गाँव में जाकर सभी के सामने अपने गुनाह को स्वीकार किया , सभी से पैर पकड़कर क्षमा मांगी। उसके इस तरह से विलाप को देखकर उसे सभी ने माफ़ कर दिया। जिससे हलषष्ठी माता प्रसन्न हो गई और उसका पुत्र जीवित हो गया। तब ही से पुत्र की लंबी उम्र हेतु हर छठ माता का व्रत एवम पूजा की जाती हैं। कहा जाता हैं जब बच्चा पैदा होता हैं तब से लेकर छः माह तक छठी माता बच्चे की देखभाल करती हैं। उसे हँसती हैं , उसका पूरा ध्यान रखती हैं इसलिये बच्चे के जन्म के छः दिन बाद छठी की पूजा भी की जाती हैं। हर छठ माता को बच्चो की रक्षा करने वाली माता भी कहा जाता है।