
भारत में हर रोज 3000 बच्चे भूख से मर जाते हैं: GHI की रिपोर्ट
भारत में सबसे ज्यादा19.4करोड़ लोग भुखमरी के शिकार:यू एन रिपोर्ट
क्या?भूख और कुपोषण भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता है
प्रकाश कुमार यादव
रायपुर(गंगा प्रकाश)।:-प्रदेश कांग्रेस संचार विभाग अध्यक्ष सुशील आनंद शुक्ला ने कहा कि भूख से हो रही मौत को लेकर सुप्रीम कोर्ट चिंतित है लेकिन जिनके ऊपर भूख को खत्म करने की जिम्मेदारी है उनकी भूख गरीबों के अनाज से भी जीएसटी वसूल कर अपने खजाने की भूख मिटाने में ज्यादा दिख रही है। केंद्र में बैठी मोदी भाजपा की सरकार को गरीब मजदूर और प्रवासी मजदूरों की चिंता नहीं है। जिस प्रकार से देश में भूख से मौत हो रही है लोग अपनी पेट पर कपड़ा बांधकर, पानी पीकर भूख को मारने के लिए मजबूर हैं। आजादी के 75 साल बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि अनाज पर भी केंद्र में बैठी सरकार जीएसटी वसूल रही है। मोदी सरकार के गलत नीतियों के चलते 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने मजबूर हैं। बेरोजगारी संकट, महंगाई संकट से देश जूझ रहा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय की चिंता को भी मोदी सरकार दरकिनार कर अनाज को जीएसटी के दायरे में लाकर गरीबों को भूखे मौत मरने के लिए मजबूर कर दिया है।
जारी हैं देश में भूख से मौतें, सरकार के खातों में एक भी नहीं
देश की सर्वोच्च अदालत के सामने 18 जनवरी, 2022 को जब भारत सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि “भारत में एक भी मौत भुखमरी से नहीं हुई है।” उसी वक्त मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना के साथ पीठ में शामिल जस्टिस एस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली ने कहा था कि “क्या हम इस बात का पूरी तरह से यकीन कर लें कि भारत में एक भी मौत भुखमरी से नहीं हुई है?”
प्रधान पीठ ने अटार्नी जनरल से कहा था कि “क्या इस कथन को रिकॉर्ड में लिया जाए?” इस सवाल का स्पष्ट जवाब सुप्रीम कोर्ट को नहीं मिल सका। सुनवाई के दौरान अटॉर्नी कहा था कि राज्यों ने भुखमरी से होने वाली मौत के आंकड़े नहीं दिए हैं लिहाजा उन्हें इसके लिए जानकारी लेनी होगी।बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों से भी भुखमरी व कुपोषण से मौत के आंकड़े देने का आदेश दिया था।
भुखमरी और कुपोषण से मौत को लेकर दशकों से उलझे और अनुत्तरित इस सवाल पर छानबीन में पाया गया कि भुखमरी की पहचान करने वाली जटिल प्रक्रिया ‘ऑटोप्सी’ का प्रभावी विकल्प अब तक नहीं बन सका है।यहां तक कि बहुआयामी गरीबी झेलने वाले झारखंड जैसे राज्य में भूख से मौत का पता लगाने वाले प्रोटोकॉल की उपस्थिति के बावजूद भुखमरी की रिपोर्टिंग नहीं की जा रही है।
राइट टू फूड कैंपेन के मुताबिक कुल 13 राज्यों में 2015-2020 के बीच 108 मौतें भुखमरी से हुई थी।इनमें ज्यादातर राज्य जहां सर्वाधिक मौते हुई हैं वह बहुआयामी गरीबी झेल रहे हैं। मसलन नीति आयोग के पहले बहुआयामी गरीबी सूचकांक में बिहार (51.9 फीसदी) शीर्ष पर है जबकि उसके बाद झारखंड (42.16), उत्तर प्रदेश (37.9 फीसदी) और मध्य प्रदेश (36.6 फीसदी) शामिल है।
स्टार्वेशन डेथ से लड़ने के लिए देश में पहली बार उठा कदम निष्प्रभावी
देश में पहली बार झारखंड में भूख से होने वाली मौतों के मामलों की जांच के लिए एक प्रोटोकॉल बनाया गया था। 28 फरवरी 2018 को खाद्य सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले विभाग की ओर से नौ सदस्यीय जांच समिति ने यह तैयार किया था। इस प्रोटोकॉल में भुखमरी यानी स्टार्वेशन के बारे में कई स्रोतों से परिभाषाएं लिखी गईं लेकिन एक्सपर्ट के मुताबिक स्टार्वेशन डेथ की पहचान के लिए इसमें स्पष्टता में काफी कमी है। इसके अलावा भूखमरी और कुपोषण से मौत की स्पष्ट अलग पहचान के मानक नहीं हैं।
इस प्रोटोकॉल में जयसिंह पी मोदी के हवाले से लिखा गया है कि शरीर में पोषण संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक भोजन का नियमित और निश्चित मात्रा न मिल पाना भुखमरी है।इसके अलावा तीन तरह की भुखमरी का जिक्र इस प्रोटोकॉल में किया गया है। पहली है सुसाइडल, दूसरी है होमोसाइडल और तीसरी एक्सीडेंटल, इन तीनों में दुर्लभ सुसाइडल स्टार्वेशन है जबकि बड़ी संख्या में भुखमरी से मौत का मामला एक्सीडेंटल स्टार्वेशन में ही पाया जाता है, जो कि अकाल, आपदा, युद्ध जैसी घटनाओं के कारण होता है।वहीं, वृद्ध, असहाय, मानसिक रोगी, अनाथ बच्चे को पर्याप्त भोजन न मिल पाना होमोसाइडल स्टार्वेशन कहलाता है।प्रोटोकॉल में भुखमरी रिपोर्ट के लिए यह भी लिखा गया है “यदि परिवार के लोग यह रिपोर्ट करें कि भोजन की अनुपलब्धता के कारण मृतक ने उस माह में जरूरत से भी कम भोजन ग्रहण किया” इसके अलावा इस प्रोटोकॉल में वर्बल ऑटोप्सी यानी सवालों के एक समूह को शामिल किया गया है जो कि मृतक के परिवार या उसे जानने वालों से पूछकर तैयार करने का भी निर्देश दिया था।
झारखंड में राइट ऑफ फूड कैंपेन से जुड़े कार्यकर्ता सिराज ने बताया कि राज्य में प्रोटोकॉल बना जरूर लेकिन वह अनुपयोगी रहा है।झारखंड में फील्ड सर्वे के दौरान मैंने पाया है कि जहां घटनाएं हुईं वहां ज्यादातर लोग पहले से ही एक वक्त का खाना नहीं खाते और धीरे-धीरे स्टार्वेशन डेथ की स्थिति में पहुंच जाते हैं।मृतकों में ज्यादातर के पास आधार कार्ड नहीं थे। प्रोटोकॉल में परिभाषाओं को उलझाया गया है और झारखंड के भुखमरी की प्रवृत्ति को ध्यान में नहीं रखा गया है।प्रोटकॉल समिति में शामिल रहे अशर्फी नंद प्रसाद ने कहा कि प्रोटोकॉल में बहुत सी चीजों को शामिल किया गया है लेकिन सरकार हर तरह से ऐसी चीजों से बचने की कोशिश करती है।यह सही है कि प्रोटोकॉल के हिसाब से अभी तक कोई जांच नहीं किया गया है।
अंडर रिपोर्टिंग का संकट
सुप्रीम कोर्ट में भुखमरी के ताजा मामले में संबंधित जनहित याचिका की पैरवी करने वाली अधिवक्ता आशिमा मांडला ने बताया कि भूख से मौत की पहचान को लेकर मुख्य समस्या इनके बारे में जानकारी सामने आने के बाद भी रिपोर्ट न किए जाने की है। झारखंड-बिहार में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब मृतक के पोस्टमार्टम में यह साफ हुआ है कि उनके पेट में अनाज का एक दाना तक नहीं था, फिर भी इसकी रिपोर्टिंग सरकारी एजेंसियों के जरिए नहीं की गई।राइट टू फूड कैंपेन से जुड़ी आयशा खान ने 2015 से लेकर मई, 2020 के बीच भुखमरी से मरने वालों की सूचनाओं को कार्यकर्ताओं और मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर तैयार किया है। इसके मुताबिक 13 राज्यों में कुल 108 मौतें भूख के कारण हुई हैं।मृतकों की इस सूची में 05 से 80 आयु वर्ग के दलित, पिछड़ा, आदिवासी और सामान्य वर्ग के लोग शामिल हैं।इन आंकड़ों के मुताबिक झारखंड में सर्वाधिक 29 मौतें, उत्तर प्रदेश में 22 मौतें, ओडिशा में 15 मौतें, बिहार में 8 मौतें, कर्नाटक में 7, छत्तीसगढ़ में 6, पश्चिम बंगाल में 6, महाराष्ट्र में 4, मध्य प्रदेश में 4, आंध्र प्रदेश में 3, तमिलनाडु में 3, तेलंगाना में 1, राजस्थान में 1 मौत शामिल है।क्रानिक पॉवर्टी रिसर्च सेंटर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के तहत प्रकाशित हंगर अंडर न्यूट्रिशन एंड फूड सिक्योरिटी नाम के वर्किंग पेपर में एनसी सक्सेना बताते हैं कि भूख और भुखमरी क्षेत्रीय व भौगोलिक आयाम वाली होती है।भारत के किसी भी राज्य में गैर आदिवासी क्षेत्र के मुकाबले आदीवासी क्षेत्र ज्यादा खाद्य असुरक्षा वाले क्षेत्र हैं।राइट टू फूड कैंपेन की पहल से पिछले पांच वर्षों में दर्ज की गई भूख से मौतों में लॉकडाउन और पलायन के घटनाक्रम भी शामिल हैं।इसके अलावा ऐसे भी मृतक रहे जिनके पास आधार कार्ड नहीं था जिसके कारण उनका राशन कार्ड काम का नहीं रहा और वे अनाज हासिल करने में नाकामयाब रहे।हमने देश में जब सख्त राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान दिल्ली से श्रावस्ती तक की यात्रा की थी, उस दौरान पाया था कि मुंबई से श्रावस्ती तक पहुंचे इंसाफ अली ने गांव के क्वारंटीन सेंटर पर पहुंचकर दम तोड़ दिया।पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण स्पष्ट नहीं हो सका लेकिन परिवार और गांव वालोें ने यह स्पष्ट किया था कि श्रमिक की मौत भूख और थकान से हुई है।
पीपुल्स विजिलेंस कमेटी ऑन ह्यूमन राइट्स के संस्थापक सदस्य व मानवाधिकार कार्यकर्ता लेनिन रघुवंशी ने बताया कि पूरी तरह से भुखमरी (एब्सल्यूट स्टार्वेशन) की स्थिति मनरेगा जैसी योजना के बाद सुधरी थी लेकिन कोविड-19 ने एब्सलूट स्टार्वेशन को लौटा दिया है।कोविड-19 में कुपोषण के कारण भी अधिक मौतें हुई हैं।सरकार को इन चीजों से छिपना नहीं चाहिए बल्कि स्थितियों को स्वीकार करना चाहिए।रघुवंशी बताते हैं कि कुपोषण की स्थितियां लगातार बनी हुई हैं।लोगों तक प्रोटीन और माइक्रोन्यूट्रिएंटस नहीं पहुंच रहा है।पैकेट्स पर फ्रंट लेबलिंग भी नहीं है ऐसे में यदि कोई अपने बच्चे को आज पैकेट फूड देता है तो वह यह नहीं जानता कि चीनी और नमक की कितनी अधिक मात्रा उसके शरीर में चली गई।
एनसी सक्सेना के वर्किंग पेपर के मुताबिक माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी एक छुपी हुई भूख है।यदि कोई व्यक्ति पर्याप्त भोजन नहीं करता है तो माइक्रोन्यूट्रिएंट्स काम नहीं करते हैं।1970-80 के बाद से लगातार उठ रहा भुखमरी का मामला पहली बार 2001 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था।उसके बाद से अब तक न ही इसके पहचान और न ही इसे रोकने को लेकर कोई स्थायी समाधान खोजा जा सका है।
भारत में हर रोज 3000 बच्चे भूख से मर जाते हैं: GHI की रिपोर्ट
तेजी से महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत में तकरीबन 19 करोड़ लोग भूखे पेट रह कर सोने को मजबूर हैंं और प्रतिदिन 3000 बच्चे भूख से मर जाते हैं। यह जानकारी ग्लोबल हंगल इंडैक्स के आंकड़ों से मिली है। हालांकि भारत का स्थान पिछले साल के मुकाबले ग्लोबल हंगर इंडैक्स में 63 के मुकाबले 53वां है। मंगल पर अपना यान भेजने वाले देश भारत में भूख के खिलाफ जंग सबसे बड़ी चुनौती है। बच्चों में कुपोषण और उनकी मृत्यु दर का स्तर बेहद चिंताजनक है। यहां तक कि नेपाल और श्रीलंका की स्थिति भारत से बेहतर है जबकि पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे पिछड़े देशों में स्थिति और भी बुरी है।
कुछ प्रमुख तथ्य
-आबादी के छठे हिस्से को पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं मिल पाते।
30.7 प्रतिशत बच्चे (5 साल से कम उम्र के) भारत में अंडरवेट हैं।
-58 प्रतिशत बच्चों की ग्रोथ इंडिया में 2 साल से कम उम्र में रुक जाती है।
-4 में से हर 1 बच्चा भारत में कुपोषण का शिकार है।
3,000 बच्चे इंडिया में कुपोषण से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण रोज मरते हैंं।
-24 प्रतिशत दुनियाभर में 5 साल से कम उम्र में मरने वाले बच्चों में भारत का हिस्सा।30 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मौत भारत में होती है।
वैश्विक आंकड़े
-दुनिया के बेहद गरीब लोगों का 64 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ 5 देशों में रहता है।
-20,000 बच्चे दुनियाभर में भूख के कारण रोज मरते हैंं।
80 प्रतिशत लोग 10 डॉलर प्रतिदिन से कम पर गुजर-बसर करते हैं।
-दुनिया में हर 9 में से 1 आदमी रोज भूखे पेट सोने को मजबूर।
दुनिया के टॉप 85 अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति 3.5 अरब स्न सबसे गरीब लोगों यानी दुनिया की आधी आबादी की सम्पत्ति के बराबर।
-80.5 करोड़ लोगों को दुनिया में भरपेट खाने को नहीं मिलता।
हर साल एड्स, मलेरिया और टी.बी. से कुल जितने लोग मरते हैं, उससे ज्यादा लोगों को भूख निगल जाती है।
-79.1 करोड़ ऐसे लोग विकासशील देशों में हैं, जिन्हें भरपेट खाना नहीं मिलता।
13.5 प्रतिशत विकासशील देशों की आबादी का वह हिस्सा है, जो कुपोषण का शिकार है।
52.6 करोड़ लोग एशिया में आधा पेट खाने को मजबूर है।
45 प्रतिशत दुनिया में 5 साल से कम उम्र के बच्चों का हिस्सा है जिसकी कुपोषण से मौत होती है।
-20 प्रतिशत 5 साल से पहले अंडरवेट बच्चों की मौत के मामले।
भारत में भूख, कुपोषण की वजह
40 प्रतिशत फल-सब्जियां और 20 प्रतिशत अनाज खराब सप्लाई चेन के कारण बर्बाद हो जाता है।
बी.पी.एल. परिवार खाने-पीने पर 70 प्रतिशत व ए.पी.एल. परिवार 50 प्रतिशत खर्च करते हैं।
शहरी वर्किंग क्लास 30 प्रतिशत खाने-पीने पर खर्च करता हैं।
जी.डी.पी. में खेतीबाड़ी का योगदान 2013 में 13.7 प्रतिशत है।
भारत में कृषि क्षेत्र में 50 प्रतिशत लोग कार्यरत हैं।
भारत में सबसे ज्यादा19.4करोड़ लोग भुखमरी के शिकार:यू एन रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में सबसे अधिक 19.4 करोड़ लोग भारत में भुखमरी के शिकार हैं।यह संख्या चीन से अधिक है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन (AFO) ने अपनी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ फूड इनसिक्योरिटी इन द वर्ल्ड 2015’ में यह बात कही है।इसके अनुसार दुनियाभर में यह संख्या 2014-15 में घटकर 79.5 करोड़ रह गई, जो कि 1990-92 में एक अरब थी।हालांकि भारत में भी 1990 तथा 2015 के दौरान भूखे रहने वाले लोगों की संख्या में गिरावट आई। 1990-92 में भारत में यह संख्या 21.01 करोड़ थी, जो 2014-15 में घटकर 19.46 करोड़ रह गई।रिपोर्ट में कहा गया है, ‘भारत ने अपनी जनसंख्या में भोजन से वंचित रहने वाले लोगों की संख्या घटाने में अहम प्रयास किए हैं, लेकिन एफएओ के अनुसार अब भी वहां 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। भारत के अनेक सामाजिक कार्य्रकम भूख व गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहेंगे, ऐसी उम्मीद है।हालांकि, इस अवधि में चीन में भूखे सोने वाले लोगों की तादाद में अपेक्षाकृत तेजी से गिरावट आई,चीन में यह संख्या 1990-92 में 28.9 करोड़ थी, जो 2014-15 में घटकर 13.38 करोड़ रह गई,रिपोर्ट के अनुसार, AFO की निगरानी दायरे में आने वाले 129 देशों में से 72 देशों ने गरीबी उन्मूलन के बारे में सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल कर लिया है।
क्या?भूख और कुपोषण भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता है
क्या भारत भूखे लोगों, कुपोषित बच्चों और एनीमिया से पीड़ित महिलाओं का देश बनता जा रहा है? क्या पिछले नो साल के नरेंद्र मोदी शासन के दौरान देश में सामाजिक सुरक्षा और भोजन की उपलब्धता के मामले में लापरवाही हुई है? क्या सरकारी सुविधाओं में आदिवासियों,एससी वर्ग और वंचित समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है?
इन सवालों का जवाब ‘हां’ में दिया जा सकता है। इसका आधार हैं राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर हाल ही में जारी तीन विश्वसनीय रिपोर्टें, जिनमें से एक ‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ (एनएफएचएस) रिपोर्ट खुद भारत सरकार ने जारी की है। इस रिपोर्ट का पहला भाग 12 दिसंबर की शाम जारी किया गया था।बाकी दो रिपोर्टों में से एक ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ (जीएचआई) अक्तूबर के तीसरे सप्ताह में जारी की गई।इसकी मान्यता पूरी दुनिया में है। इसे जर्मनी और आयरलैंड की दो नामी संस्थाएं संयुक्त तौर पर हर साल जारी करती हैं।तीसरी रिपोर्ट है ‘हंगर वॉच’, जो भारत में काम कर रहे ‘भोजन का अधिकार अभियान’ (राइट टू फूड कैंपेन) ने पिछले सप्ताह जारी की है।इन तीनों रिपोर्टों का सारांश यह है कि विश्व शक्ति बनने की चाह रखने वाले भारत में भूख आज भी सबसे बड़ी चिंता है।
ग्लोबल हंगरइंडेक्स -2020
इस वैश्विक सूचकांक में भारत का स्कोर 27.2 है। यह स्थिति गंभीर स्तर की मानी जाती है. दुनिया के 107 देशों में हुए इस सर्वेक्षण में भारत 94वें नंबर पर है, सूडान के साथ अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में भारत से कमज़ोर पाकिस्तान (88), नेपाल (73), बांग्लादेश (75) और इंडोनेशिया (70) जैसे देशों को हंगर- इंडेक्स में भारत से ऊपर जगह मिली है।मतलब ये कि वहां हालात भारत से बेहतर हैं।हंगर-इंडेक्स में चीन दुनिया में सबसे संपन्न 17 देशों के साथ पहले नंबर पर है।अफ़ग़ानिस्तान, नाइजीरिया और रवांडा जैसे गिनती के कुछ देश ही इस सूचकांक में भारत से पीछे हैं।
हंगर-वॉच की रिपोर्ट
भारत के 11 राज्यों में सर्वेक्षण के बाद राइड टू फूड कैंपेन ने यह रिपोर्ट जारी की है।इसमें साल 2015 के बाद से अब तक भूख से कथित तौर पर हुई कम से कम 100 मौतों का भी ज़िक्र किया गया है।रोज़ी-रोटी अधिकार अभियान के कार्यकर्ताओं ने झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, दिल्ली, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के 3,994 लोगों से बातचीत कर यह रिपोर्ट तैयार की है। इनमें शहरी और ग्रामीण दोनों आबादी को शामिल किया गया था।इस सर्वे में दावा किया गया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत के कई परिवारों को कई-कई रातें भूखे रह कर गुज़ारनी पड़ीं। इनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था. यह स्थिति क़रीब 27 फीसदी लोगों की थी।क़रीब 71 प्रतिशत लोगों के भोजन की पौष्टिकता में लॉकडाउन के दौरान कमी आई।इनमें से 40 फीसदी लोगों के भोजन की गुणवत्ता काफ़ी ख़राब रही। दो-तिहाई लोगों के भोजन की मात्रा में कमी आई. 28 फीसदी लोगों के भोजन की मात्रा लॉकडाउन के बाद काफ़ी कम हो गई है।45 फीसदी लोगों को खाने का इंतज़ाम करने के लिए कर्ज़ लेना पड़ा, यह हालत सिर्फ निम्न आय वर्ग के लोगों की नहीं रही।15,000 रुपये या इससे अधिक की मासिक आमदनी वाले 42 प्रतिशत लोगों को भी इस दौरान पहले की अपेक्षा अधिक कर्ज़ लेना पड़ा।कर्ज़ लेने वाले लोगों में एससी वर्ग की संख्या सामान्य जातियों के लोगों से 23 फीसदी अधिक थी। हर चार दलितों और मुसलमानों में से एक और क़रीब 12 प्रतिशत आदिवासियों को रोटी के लिए भेदभाव का सामना करना पड़ा।इस सर्वे से यह भी पता चला है कि लॉकडाउन समाप्त होने का बावजूद आर्थिक संकट जारी है।उस दौरान नौकरी गंवाने वाले अधिकतर लोगों को दोबारा नौकरियां नहीं मिल सकी हैं।लोगों ने स्कूलों से अपने बच्चों के नाम तक कटवा लिए हैं।लॉकडाउन के दौरान खाने का इंतज़ाम करने के लिए लोगों को अपने गहने और दूसरी संपत्तियां भी बेचनी पड़ी है।प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (पीजीकेवाई) में घोषित उपाय नाकाफ़ी रहे और कई लोगों का कहना है कि इसमें उन्हें शामिल ही नहीं किया गया।हालांकि, लॉकडाउन के दौरान पीडीएस से मुफ्त मिले अनाज, मिड डे मील योजना के तहत मिले सूखा राशन और आंगनबाड़ी केंद्रों से मिली खाद्य सामग्री से लोगों को कुछ राहत ज़रूर मिली।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे
भारत सरकार द्वारा 22 राज्यों में कराए गए इस सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि देश में कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं।महिलाओं में एनीमिया की शिकायत आम है और बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं।इस कारण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की लंबाई 13 राज्यों में सामान्य से कम है।12 राज्यों में इसी उम्र के बच्चों का वजन लंबाई के मुताबिक नहीं है।यह सर्वे असम, बिहार, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, कर्नाटक, मिज़ोरम, केरल, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, हिमाचल प्रदेश, लक्ष द्वीप, दादरा एवं नगर हवेली और महाराष्ट्र आदि राज्यों के 6.1 लाख परिवारों के साथ किया गया।सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक़, उम्र की तुलना में कम लंबाई वाले बच्चों की संख्या के मामले में बिहार 43 फीसदी हिस्सेदारी के साथ मेघालय के बाद देश में दूसरे नंबर पर है।गुजरात में यह आंकड़ा 39 फीसदी है।मतलब, गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में बच्चों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है वे कुपोषित हैं।इस कारण उनमें लंबाई कम होने की शिकायत है।उम्र के हिसाब से कम वजन वाले बच्चों की संख्या बिहार में सबसे अधिक 22.9 फीसदी है।हालांकि, शिशु मृत्यु दर के मामले देश के अधिकतर राज्यों में कम हुए हैं। इसकी वजह टीकाकरण बताई गई है, लेकिन भूख और कुपोषण की स्थिति अभी चिंतनीय स्तर पर है।
भारत की यह हालत क्यों है?
मशहूर अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज़ मानते हैं कि भारत की इस हालत के लिए नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियां ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि कुपोषण और भूख के मामले में देश की हालत ख़राब होने के बावजूद भारत सरकार को इसकी चिंता है, ऐसा नहीं लगता।ज्यां द्रेज ने मीडिया से कहा, “नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार के कार्यकाल में पिछले चार-पांच साल में बच्चों के पोषण के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है।लॉकडाउन में यह हालत और ख़राब हुई होगी।हंगर-वॉच का सर्वे बताता है कि 66 फीसदी लोग अब कम खा रहे हैं।लॉकडाउन में उनकी हालत ख़राब हुई है।इसके बावजूद भारत की मौजूदा सरकार मिड-डे मील और आइसीडीएस जैसी योजनाओं का बजट लगातार कम कर रही हैं।जबकि ये योजनाएं कुपोषण और भूख से लड़ाई में मददगार हैं।ज्यां द्रेज के मुताबिक़, “दरअसल इस सरकार की विकास की समझ उल्टी है।यह सरकार सिर्फ़ आर्थिक वृद्धि को ही विकास मानती है, जबकि विकास का मतलब यह नहीं है।आर्थिक वृद्धि और विकास में काफी फ़र्क है।विकास का मतलब यह भी है कि किसी देश में प्रति व्यक्ति आय या उसकी जीडीपी बढ़े, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, डेमोक्रसी, सामाजिक सुरक्षा की हालत में भी सुधार हो।
भारत में अभी ऐसा नहीं हो रहा है। यह संपूर्ण विकास नहीं है. हंगर वॉच और एनएफ़एचएस के सर्वे दरअसल एक ‘वेकअप-काल’ है।लेकिन दुख की बात यह है कि न सरकार और न ही मुख्यधारा का मीडिया इस पर ध्यान दे रहा है।इस कारण भारत में भूख और कुपोषण जैसी समस्याओं का समाधान नहीं निकल पा रहा है।