तत्त्व जिज्ञासा तत्त्वबोध प्राप्त कर दु:खों के आत्यन्तिक उच्छेद की भावना से है विहित – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी(गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी पुरुषार्थ चतुष्टय के मल शोधन की आवश्यकता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि आगम (शास्त्र), अन्न – जल, प्रजा (संङ्ग ), देश, काल, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार – ये दस गुण में हेतु हैं। जिनका चित्त असंस्कृत है, वे इस रहस्य को नहीं समझ पाते कि जीव की संस्कृति में अविद्या, काम और कर्म हेतु हैं। सम्यक् दर्शन सम्पन आत्मनिष्ठ ध्यानयोगी अविद्यामूलक कर्मबन्ध से विनिर्मुक्त होते हैं, ना कि सम्यक् – दर्शन विहीन। व्यास स्मृति के अनुसार गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, वपनक्रिया या चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन (व्रतादेश), वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, विवाहाग्नि परिग्रहण तथा त्रेताग्नि संग्रह – नामक प्रसिद्ध षोडश संस्कार हैं । जो वैदिक संस्कार से विधिवत् सम्पन्न है, जो नियम पूर्वक रहकर मन तथा इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर चुका है, उस प्राज्ञ को लोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त करते देर नहीं लगती। सनातन धर्म में आहारादि रूप काम की सिद्धि के लिये अनिन्द्य कर्मरूप धर्म का सम्पादन विहित है। आहारादि में प्रवृत्ति विषयोपभोग की लम्पटता के लिये नहीं, अपितु प्राणरक्षार्थ विहित है। प्राणसंधारण भगवत्तत्त्व की जिज्ञासा के लिये विहित है। तत्त्व जिज्ञासा तत्त्वबोध प्राप्त कर दुःखों के आत्यन्तिक उच्छेद की भावना से विहित है।सनातन धर्म के अनुसार धर्म का वास्तव फल मोक्ष है। धर्मानुष्ठान से सुलभ अर्थ के द्वारा धर्मानुष्ठान और तत्त्व चिन्तन के अनुरूप जीवन की समुपलब्धि विहित है । अर्थ का विनियोग विषय लम्पटता की परिपुष्टि में निषिद्ध है। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को वास्तव पुरुषार्थ का रूप प्रदान करने के लिये चारों के मल का शोधन आवश्यक है। फलेच्छा धर्म का मल हैं, संग्रह अर्थ का मल है, आमोद और प्रमोद काम का मल है और द्वैताभिनिवेश मोक्ष का मल है। यद्यपि आत्मदेव अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म ही है तथापि अनादि अविद्या, काम और कर्म के वशीभूत प्राणी आत्म स्वरूप में अध्यस्त अनात्म प्रपञ्श रूप द्वैत में सत्ता, चित्ता और प्रियता का आधान कर व्यवहार दशा में अहन्ता — ममता रूप अभिनिवेश के कारण भय को प्राप्त होता है। यद्यपि मृत्युग्रस्त, जड़ , दुःखप्रद देहादि विषम और सदोष अनात्म वस्तुओं में अहंता ममता शून्य सुषुप्ति में भी द्वैतबीज अज्ञान विद्यमान रहता है, परन्तु द्वैताभिनिवेश के अभाव में अन्य अन्य बुद्धिरूप अध्यास रहित द्वैत भयप्रद नहीं होता। यद्यपि व्यवहार दशा में ग्राह और उपेक्ष्य वस्तुएँ भी द्वैत हैं, परन्तु वे तत्काल भयप्रद सिद्ध नहीं होतीं ; तथापि उनकी श्रमप्रदता, वियोग शीलता और उनसे उपरामता के कारण वे आत्मस्वरूप में अध्यस्त अवश्य हैं ; अतएव वरणीय नहीं हैं, भयप्रद अवश्य हैं। अभिप्राय यह है कि अनुकूल द्वैत की भी स्थिर प्रेमास्पदता असिद्ध है, अतः भयप्रदता सिद्ध है। स्वप्न और मनोराज्य गत दृश्य प्रपञ्च के तुल्य ही बाह्य दृश्य का वास्तव अस्तित्व नहीं है। अतः द्वैत प्रपञ्च के अस्तित्व की अभिमति (स्वीकृति) एवम् उसमें प्रीति और प्रवृत्ति तथा प्रतिकूल बुद्धिरूप अभिनिवेश से मन को मुक्त कर सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा में सन्निहित कर अभयप्रद मोक्षोपलब्धि ही जीव का चरम लक्ष्य और कर्तव्य है।

0Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *