देहनाश से आत्मनाश नहीं होता और देहभेद से आत्मभेद नहीं होता – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी सनातन धर्म के परिपालन से पुरुषार्थों की सिद्धि की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि सनातन धर्म में सम्पन्नता के नाम पर दरिद्रता को प्राप्त कराने की अदूरदर्शिता नहीं है। मद्य, द्यूत, अपवित्रता, चोरी, तस्करी, कच्चे माल का निर्यात और ऋण का झञ्झावात, विश्वासघात, कृत्रिम व्यक्तित्व, श्रम के प्रति अरुचि, असंयम, विषय लम्पटता, शीलापहरण, अराजकता, वर्णसंकरता तथा कर्मसंकरतादि दूषणों से विमुक्त जीवन पद्धति और शासन संस्थान के कारण सनातन धर्म सर्वत्र समृद्धि, सुख और शान्ति से सम्पन्न दर्शन है। सनातन धर्म में विकाश के नाम पर देहात्मवाद को तथा मँहगाई को प्रश्रय दिये बिना, पर्यावरण को तथा गोवंश गङ्गादि प्रशस्त मानबिन्दुओं को शोषित तथा दूषित किये बिना विकाश को परिभाषित तथा क्रियान्वित करने की विधा है। इसमें सबकी जीविका जन्म से आरक्षित है। सनातन धर्म में स्थूल शरीर को व्याधि ग्रस्त, सूक्ष्म शरीर को कामादि आंधिंयों से संत्रस्त तथा कारण शरीर को अविद्या संलिप्त करने और रखने की विधा का नाम आध्यात्मिक विकास नहीं है। परमेश्वर, प्रकृति, पञ्चभूत, धर्म और धर्मशीलों से विमुखता और सुदूरता का नाम सनातन धर्म में आधिदैविक और आधिभौतिक विकास नहीं है। सबको स्वस्थ, सर्वेश्वर का भक्त, दैवीप्रकृति का अनुचर, पञ्चभूतों का संरक्षक और धर्मशील बनाने वाला धर्म सनातन धर्म है। देहनाश से आत्मनाश नहीं होता और देहभेद से आत्मभेद नहीं होता – इस दार्शनिक सिद्धान्त को स्वीकार कर अधिकारानुसार चित्तशोधक कर्म, समाधिप्रदा उपासना और भवभय अपहारक ज्ञान का विधायक सनातन धर्म है। अतः इसके अनुपालन से सर्वहित सुनिश्चित है। सनातन धर्म का मूल अपौरुषेय वेद और वेदानुकूल आप्त वचन है। अत: इसमें पुरुषनिष्ठ भ्रम, प्रमाद, श्रौत्रादि करणों की अपटुता, अदूरदर्शिता, छल, आदिका सनिवेश बिल्कुल नहीं है। आत्मनिष्ठ आप्तकाम व्यास पीठासीन धर्माचायों से नियन्त्रित सर्वहितैषी शासनतन्त्र की व्यवस्था होने के कारण सनातन धर्म में धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त शासनतन्त्र की शक्ति सन्निहित है। सनातन धर्म में सबको सुबुद्ध, स्वावलम्बी और सत्यसहिष्णु बनाने का मार्ग प्रशस्त है। इसके परिपालन से धर्मातिरिक्त अर्थ, काम और मोक्षरूप शेष तीन पुरुषार्थों की संसिद्धि भी सुनिश्चित है। व्यवहार की सार्थकता और परमार्थसिद्धि की प्रशस्त विधा सनातनधर्म है। अतएव धर्म के महत्त्व को समझते हुये देहेन्द्रिय प्राणान्त:करण को संयत रखते हुये जीवन में धर्म की प्रधानता देते हुये पहले धर्माचरण करके ही अर्थोपार्जन का प्रयास करे। ध्यान रहे ; धर्मपरायण पुरुष पर सब प्राणियों का विश्वास होता है तथा विश्वासपात्र के सब प्रयोजन स्वतः सिद्ध होते हैं। सर्वप्रथम धर्माचरण करे, तत्पश्चात् धर्मयुक्त अर्थ का उपार्जन करे फिर धर्म और अर्थ के अविरुद्ध और अनुकूल काम का सेवन करे। तदनन्तर वह स्वतः सिद्ध ब्रहसिद्धि के लिये तत्पर रहकर जीवन को सार्थक करे।

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