“पत्र”कारिता और “पक्ष”कारिता के “विधर्म”पर अब सार्वजनिक रूप से होनी चाहिए बात….?

पशुओं के राज्य में,जो पूनम की चांदनी है,न वह तुम्हारे लिए,न वह हमारे लिए….?

नई दिल्ली(गंगा प्रकाश):-यह स्‍तंभ भले ही एक पक्ष यानी पखवाड़े में हिंदी अखबारों के किये-धरे के विश्लेषण पर केंद्रित है, लेकिन प्रकारांतर से यहां अखबारों का ‘पक्ष’ भी उजागर हो जाता है।बीते दो अंकों में हमने अखबारों के वैचारिक पक्ष को समझने की कोशिश उनके संपादकीय पन्‍ने के माध्‍यम से की, इसमें एक बात तो साफ हो गयी कि अखबार अब ‘निष्‍पक्ष’ (यहां निष्‍पक्ष का तात्‍कालिक आशय केवल राजनीतिक दलों से निरपेक्षता है, विचार से नहीं) होकर नहीं लिखते-छापते. उन्‍हें कोई आवरण भी नहीं चाहिए क्‍योंकि अब वे सीधे सत्‍तापक्ष के नेताओं को ही संपादकीय पन्‍ने पर छाप देते हैं। इस तर्क को उलट कर क्‍या ये पूछा जा सकता है कि पत्रकारों को भी अब अपना राजनीतिक पक्ष नहीं छुपाना चाहिए, सीधे राजनीतिक दलों में घुस जाना चाहिए (चूंकि राजनीतिक दल अखबारों में घुस आए हैं)?

इसी से जुड़ा एक और सवाल है जो इस मंच के लिहाज से मौजूं होगा- जिन्‍होंने अब तक किसी राजनीतिक ‘पक्ष’ को नहीं पकड़ा है और तथ्‍यात्‍मक निष्‍पक्षता के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं क्‍या वे बाइ डिफॉल्‍ट सत्‍ताविरोधी ठहरा कर प्रताड़ित किए जाएंगे? न्‍यूज़लॉन्‍ड्री के दफ्तर में सर्वे के नाम पर आयकर विभाग ने जिस तरह 24 घंटे छापा मारा, उसमें एक संदेश छुपा है. यह संदेश हर आए महीने हमें पढ़ने को मिलता है, बस मंच अलग होता है. क्‍या यह संयोग है कि उन्‍हीं मंचों के ‘सर्वे’ में सरकार दिलचस्‍पी लेती है जहां उसके नेता, सांसद नहीं लिखते और जो सत्‍ताधारी पक्ष की नहीं बल्कि मतदाता की बोली बोलते हैं?

भरोसा और भरोसे का टूटना

इस सवाल पर आज बात की जानी जरूरी है क्‍योंकि संकट दोतरफा है। जिस रफ्तार से मीडिया प्रतिष्‍ठानों का सत्‍ता के हिसाब से अनुकूलन हुआ है उसी रफ्तार से पत्रकारिता करने की आकांक्षा रखने वाले लोग राजनीतिक दलों की ओर भागे हैं। पत्रकारों का राजनीति में जाना बहुत पुरानी परिघटना है, लेकिन पत्रकारों का राजनीतिक दलों की खुलेआम वेतनशुदा चाकरी करना केवल 10 साल पहले शुरू हुई परिघटना है। इसी दिल्‍ली में आम आदमी पार्टी और बाद में प्रशांत किशोर जैसे चुनाव प्रबंधकों ने यह रीत शुरू की थी, जब रिकॉर्ड संख्‍या में पत्रकार 2014 का चुनाव लड़े थे।आज यह रीत चलते-चलते भाजपा और कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियों तक राज्‍य स्‍तर पर पहुंच चुकी है।

विभाजन स्‍पष्‍ट हो रहे हैं।पत्रकार पक्षकार हो रहे हैं। पत्रकारिता काफी पहले पक्षकारिता हो चुकी है।ऐसे में जिसे हम ‘स्‍वतंत्र पत्रकारिता’ कहते हैं, क्‍या वह संभव होगी? क्‍या ऐसे कुछ लोगों के बचे रहने का कोई अर्थ नहीं है जो प्रत्‍यक्षत: किसी राजनीतिक पाले में न हों और वही कर रहे हों जो करने आए थे- यानी पत्रकारिता?ऐसी चिंताएं जनता में नहीं पायी जाती हैं क्‍योंकि भारतीय मीडिया दुनिया में सबसे ज्‍यादा अपनी जनता द्वारा भरोसा किया जाने वाला मीडिया है।2013 से 2021 यानी बीते आठ वर्ष के भीतर औसतन 70 फीसद जनता हमेशा ही मीडिया पर भरोसा करती रही है।यह अद्भुत स्थिति है।विडम्‍बना ही कहेंगे जब पत्रकारों को खुद मीडिया संस्‍थानों की पत्रकारिता पर भरोसा नहीं रहा,ऐसे में जनता भरोसे को टिकाए हुए है।फेक न्‍यूज़ के दौर में इस भरोसे पहेली को समझने के लिए पांच दिन पहले आए एक शोध नतीजे को यहां देखा जाना चाहिए,रायटर्स और फेसबुक के इस संयुक्‍त अध्‍ययन से पता चलता है कि कोई 75 फीसद भारतीय आबादी इसलिए मीडिया पर भरोसा करती है क्‍योंकि सत्‍ता के सापेक्ष यहां का मीडिया बीच में से दो फाड़ है।उसी हिसाब से पाठक/दर्शक भी दो फाड़ हो चुका है।

नीचे दी हुई तस्‍वीर को देखें और याद भी रखें- बाएं से तीसरी एक-चौथाई जनता मोटे तौर से मीडिया पर भरोसा करती है, पहली वाली एक-चौथाई मोटे तौर पर भरोसा नहीं करती या फिर उदासीन है लेकिन बीच की करीब आधी आबादी यानी 60 करोड़ से ज्‍यादा लोग मीडिया पर ”सेलेक्टिव” भरोसा करते हैं यानी अपनी पसंद के हिसाब से भरोसा,यही वह 50 फीसद राजनीतिक रूप से अतिजागरूक मतदाता हैं जो देश में राजनीतिक विमर्श को चलाता है।पूछा जा सकता है कि जिसे हम ‘स्‍वतंत्र पत्रकारिता’ कहते हैं, वह आबादी के किस सेगमेंट के लिए है।पहली चौथाई, तीसरी चौथाई या बीच का विभाजित आधा? जाहिर है, इसका पाठक वर्ग या दर्शक ज्‍यादातर बीच के विभाजन में अवस्थित हो चुका है।यह वो पाठक/दर्शक है जो सत्‍ता से नाराज है और विकल्‍प के लिए विपक्षी दलों का मुंह देखता है।कुछ ऐसे इसमें बेशक हो सकते हैं जो बाकी राजनीतिक दलों में सत्‍ता का विकल्‍प न पाते हों, लेकिन तीव्र विभाजन की स्थिति में ऐसा अकसर होता नहीं है। यही वे स्‍वतंत्र मंच हैं जहां आयकर और प्रवर्तन निदेशालय के छापे पड़ते हैं।इन्‍हीं मंचों के पत्रकारों को जेल भेजा जाता है, मुकदमे होते हैं, पिटाई होती है, ट्रोल किया जाता है।विभाजन रेखा के दूसरी ओर वाले भी कभी-कभार सरकारी लक्ष्‍मण रेखा पार कर के संकट में फंस जाते हैं, जैसा आज अजीत भारती के साथ हो रहा है।यह विभाजन इतना तीखा है कि दीवार के दोनों ओर एक किस्‍म का परपीड़क सुख काम करता है। यह पत्रकारों को सरोकारों के आधार पर एक होने से रोकता है। दीवार के एक तरफ कोई पत्रकार मार खाता है तो दीवार के दूसरी तरफ के पत्रकारों के सीने में सुलगी हुई आग थोड़ा शांत होती है।यही बात पाठकों पर भी आजकल लागू होती है क्‍योंकि आज का पाठक/दर्शक पत्रकार की अपनी ‘कॉन्‍सटिचुएंसी’ है. यही विभाजन यह धारणा भी निर्मित करता है कि जो अब भी ‘स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष’ बने हुए हैं वे दरअसल पाखंडी हैं, छुप-छुप के राजनीति करते हैं, बस जाहिर नहीं करते।ऐसी बंटी हुई परिस्थिति में जब कोई ‘स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष’ पत्रकार किसी राजनीतिक दल का तनखैया बनने का फैसला लेता है, तो उसके लिए उपर्युक्‍त धारणा अपने निर्णय के बचाव का एक ठोस बहाना बन जाती है। हाल के ऐसे दो उदाहरण हैं- जवाहरलाल नेहरू पर बेस्‍टसेलर किताब लिखने वाले बेहतरीन रिपोर्टर रहे पत्रकार पीयूष बबेले और फैक्‍टचेक वेबसाइट के रूप में शुरू हुई मीडियाविजिल के स्‍वामी-संपादक पंकज श्रीवास्‍तव, जिसका मोटो सीपी स्‍कॉट का यह प्रसिद्ध कथन है- ‘विचार उन्‍मुक्‍त हैं लेकिन तथ्‍य पवित्र हैं’. ऐसे उम्‍दा (अब भूतपूर्व) पत्रकार भले अपने निजी निर्णय को अपनी ध्रुवीकृत ‘कांस्‍टिचुएंसी’ के बीच सही ठहरा ले जाएं, लेकिन तीसरा वाला चौथाई सेगमेंट जो है (जो मोटे तौर पर पत्रकारिता पर भरोसा करता था) वहां भरोसे की एक कड़ी तत्‍काल टूट जाती है और उधर से कुछ थोड़ा सा खिसक कर पहले वाले चौथाई में चला जाता है (जिन्‍हें मोटे तौर पर पत्रकारिता पर भरोसा नहीं रहा या जो उदासीन हैं)।सवाल यहां किसी के निजी निर्णय पर नहीं है।बात उसके लिखे-पढ़े से जुडी आबादी की है।यह बात तो पत्रकारिता में एक स्‍वयंसिद्ध तथ्‍य है कि आप यह मानकर ही लिखते हैं कि उसे आबादी का कोई हिस्‍सा पढ़ रहा होगा।जो स्‍वयंसिद्ध था, उसमें से आपका निजी निर्णय कुछ न कुछ खिसका देता है। वास्‍तव में यह एक निजी निर्णय नहीं, बल्कि पत्रकारिता की प्रस्‍थापना के स्‍तर पर आया बदलाव है।चूंकि खूंटा बदल गया है, तो आलोचनाएं अब निजी जान पड़ती हैं जबकि उससे पहले पत्रकारिता के बदले मिल रही सराहनाएं सामाजिक हुआ करती थीं।मुक्तिबोध ने शायद इन्‍हीं द्वैध क्षणों के लिए वर्षों पहले लिखा था:

उनको डर लगता है, आशंका होती है, कि हम भी जब हुए भूत, घुग्घू या सियार बने, तो अभी तक यही व्यक्ति, ज़िंदा क्यों?

पत्रकारिता के मूल्य

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है। इसने लोकतंत्र में यह महत्वपूर्ण स्थान अपने आप हासिल नहीं किया है बल्कि सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्व को देखते हुए समाज ने ही यह दर्जा दिया है। लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब पत्रकारिता सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निर्वाह करें। पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निर्वाह करें।समय के साथ पत्रकारिता का मूल्य बदलता गया है। इतिहास पर नजर ड़ाले तो स्वतंत्रता के पूर्व की पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति ही लक्ष्य था। स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाइर् है। उस दौर में पत्रकारिता ने परे देश को एकता के सूत्र में बांधने के साथ साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।आजादी के बाद निश्चित रूप से इसमें बदलाव आना ही था। आज इंटरनेट और सूचना अधिकार ने पत्रकारिता को बहु आयामी और अनंत बना दिया है। आज को भी जानकारी पलक झपकते उपलब्ध करा जा सकती है। पत्रकारिता वर्तमान समय मे पहले से क गुना सशक्त, स्वतंत्र और प्रभावकारी हो गया है। अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता की पहुंच का उपयोग सामाजिक सरोकारों और समाज की भला के लिए हो रहा है लेकिन कभी कभार इसका दुरुपयोग भी होने लगा है।

पत्रकार की योग्यता और उत्तरदायित्व

पत्रकार में कुछ गुण ऐसे होने चाहिए जो उसे सफल पत्रकार बना सकता है उसमें सक्रियता, विश्वासपात्रता, वस्तुनिष्ठता, विश्लेषणात्मक क्षमता, भाषा पर अधिकार।

सक्रियता

एक सफल पत्रकार के लिए अत्यंत जरूरी है कि वह हर स्तर पर सक्रिय रहे। यह सक्रियता उसे समाचार संकलन और लेखन दोनों में „ ष्टिगोचार होनी चाहिए। सक्रियता होगी ताे समाचार में नयापन और ताजगी आएगी। अनुभवी पत्रकार अपने परिश्रम और निजी सूत्रों से सूचनाएँ प्राप्त करते हैं और उन्हें समाचार के रूप में परिवर्तित करते हैं। वह पत्र और पत्रकार सम्मानित होते हैं जिसके पत्रकार जासूसो की तरह सक्रिय रहते हैं और अपने संपर्क सूत्रों को जिंदा रखते हैं।

विश्वासपात्रता

विश्वासपात्रता पत्रकार का ऐसा गुण है जिसे प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। संपर्क सूत्र से पत्रकार को समाचार प्राप्त होते हैं। पत्रकार को हमेशा उसका विश्वासपात्र बने रहने से ही समाचार नियमित रूप से मिल सकता है। संपर्क सूत्र हमेशा यह ध्यान रखता है कि उसका जिस पत्रकार के साथ संबंध है वह उसके विश्वास को कायम रखता है या नहीं। अगर सूत्र का संकेत देने से उस व्यक्ति का नुकसान होता है तो उसे कभी भी उससे संपर्क नहीं रखना चाहेगा।

वस्तुनिष्ठता

वस्तुनिष्ठता का गुण पत्रकार के कर्तव्य से जुड़ा है। पत्रकार का कर्तव्य है कि वह समाचार को ऐसा पेश करे कि पाठक उसे समझते हुए उससे अपना लगाव महसूस करें। चूंकि समाचार लेखन संपादकीय लेखन नहीं होता है तो लेखक को अपनी राय प्रकट करने की छूट नहीं मिल पाती है। उसे वस्तुनिष्ठता होना अनिवार्य है। लेकिन यह ध्यान रखना होता है कि वस्तुनिष्ठता से उसकी जिम्मेदारी भी जुड़ी हुई है। पत्रकार का उत्तरदायित्व की परख तब होती है जब उसके पास को विस्फोटक समाचार आता है। 

विश्लेषणात्मक क्षमता 

पत्रकार में विश्लेषण करने की क्षमता नहीं है तो वह समाचार को रोचक ढंग से पेश नहीं कर पाता है। आज के पाठक केवल तथ्य पेश करने से संतुष्ट नहीं होता है। समाचार का विश्लेषण चाहता है। पाठक समाचार की व्याख्या चाहता है। समाचार के साथ विश्लेषण दूध में पानी मिलाने की तरह गुंथा हुआ रहता है। लेकिन व्याख्या में भी संतुलन होना चाहिए। 

पत्रकार की विश्लेषण क्षमता दो स्तर पर होता है

समाचार संकलन के स्तर पर और लेखन के स्तर पर। समाचार संकलन में पत्रकार की विश्लेषण क्षमता का उपयोग सूचनाओं और घटनाओं को एकत्र करने के समय होते  है। इसके अलावा पत्रकार सम्मेलन, साक्षात्कार आदि में भी उसका यह क्षमता उपयोग में आता है। दूसरा स्तर लेखन के समय दिखा देती है। जो पत्रकार समाचार को समझने और प्रस्तुत करने में जितना ज्यादा अपनी विश्लेषण क्षमता का उपयोग कर सकेगा, उसका समाचार उतना ही ज्यादा दमदार होगा। इसे व्याख्यात्मक रिपोटिर्ंग भी कहा जाता है।

भाषा पर अधिकार

समाचार लेखन एक कला है । ऐसे में पत्रकार को लेखन कला में माहिर होना होगा। उसे भाषा पर अधिकार होना चाहिए। इसके साथ ही पत्रकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि उसके पाठक वर्ग किस प्रकार के हैं। समाचारपत्र में अलग अलग समाचार के लिए अलग अलग भाषा दिखाइर् पड़ते हैं। जैसे कि अपराध के समाचार, खेल समाचार या वाणिज्य समाचार की भाषा अलग अलग होती है। लेकिन उन सबमें एक समानता होती है वह यह है कि सभी प्रकार के समाचारों में सीधी, सरल और बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया जाता है। 

पत्रकारिता के क्षेत्र

आज की दुनिया में पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। शायद ही को क्षेत्र बचा हो जिसमें पत्रकारिता की उपादेयता को सिद्ध न किया जा सके। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आधुनिक युग में जितने भी क्षेत्र हैं सबके सब पत्रकारिता के भी क्षेत्र हैं, चाहे वह राजनीति हो या न्यायालय या कार्यालय, विज्ञान हो या प्रौद्योगिकी हो या शिक्षा, साहित्य हो या संस्कृति या खेल हो या अपराध, विकास हो या कृषि या गांव, महिला हो या बाल या समाज, पर्यावरण हा े या अंतरिक्ष या खोज। इन सभी क्षेत्रों में पत्रकारिता की महत्ता एवं उपादेयता को सहज ही महसूस किया जा सकता है। दूसरी बात यह कि लोकतंत्र में इसे चौथा स्तंभ कहा जाता है। ऐसे में इसकी पहुंच हर क्षेत्र में हो जाता है।

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