
अरविन्द तिवारी
नई दिल्ली (गंगा प्रकाश)- आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने 3-2 के जजमेंट से उनके आरक्षण के पक्ष में फैसला सुनाते हुये इसे पूरी तरह से वैध करार दिया है। इस फैसले को सुनाने वाले जजों में चीफ जस्टिस यूयू ललित के अलावा जज एस रवींद्र भट , दिनेश माहेश्वरी , जेबी पार्डीवाला और बेला एम त्रिवेदी शामिल रहे हैं। जिन दो जजों ने इस फैसले का समर्थन नहीं किया है उनमें चीफ जस्टिस यूयू ललित और जज एस रवींद्र भट शामिल हैं। इन दोनों जजों ने इस आरक्षण को गलत बताया है। जबकि के बाकी के तीनों जजों ने इस आरक्षण को पूरी तरह से संवैधानिक बताते हुये कहा कि आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को यह आरक्षण मिलता रहेगा। बताते चलें कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये आरक्षण की व्यवस्था वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने लागू की थी। इसे लागू करने के लिये केंद्र सरकार ने संविधान में 103वां संशोधन किया गया था। वर्ष 2019 में लागू किये गये इस कोटा को मौजूदा तमिलनाडु सरकार समेत कई याचिकाकर्ताओं ने संविधान के खिलाफ बताते हुये इसे अदालत में चुनौती दी थी। हालांकि बाद में 2022 में संविधान पीठ का गठन हुआ और 13 सिंतबर को चीफ जस्टिस यूयू ललित , जस्टिस दिनेश महेश्वरी , जस्टिस रवींद्र भट्ट , जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पादरीवाला की संविधान पीठ ने इस पर सुनवाई शुरू कर दी थी। इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने दलील दी है कि इस आरक्षण का मकसद सामाजिक भेदभाव झेलने वाले वर्ग का उत्थान था। लेकिन अगर इसका आधार गरीबी है तो इसमें एससी , एसटी और ओबीसी को भी जगह मिले। इसके साथ ही याचिकाकर्ताओं ने अपनी दलील में कहा है कि इस कोटे का पचास फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन करता है। वहीं इस आरक्षण पर सरकार की ओर से कहा गया है कि इस तबके को सामाजिक और आर्थिक रूप से समानता दिलाने के लिये ये व्यवस्था जरूरी है। केंद्र सरकार की ओर से इस पर कहा गया कि इस व्यवस्था से ना तो आरक्षण पर और ना ही किसी दूसरे वर्ग को इसका नुकसान है। वहीं पचास फीसदी आरक्षण की सीमा की बात पर केंद्र सरकार का कहना है कि जिस पचास प्रतिशत सीमा की बात की जा रही है , वो कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। सरकार ने कहा कि ये सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से आया है, तो इस स्थिति में ऐसा नहीं है कि इसके परे जाकर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।