कुमारिल भट्ट से बौद्ध विद्वानों का शास्त्रार्थ में पराजय – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)। हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता , विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी कुमारिल भट्ट की बौद्ध विद्वानों से शास्त्रार्थ की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि कालक्रम से देवराज इन्द्र सुधन्वा होकर अवतीर्ण हुये। उन्होंने मर्त्यलोक को स्वर्गोपम बनाते हुए देवकार्य की सिद्धि की भावना से सौगत सिद्धान्तानुगामी सम्राट् होकर पतङ्ग के आकर्षण केन्द्र प्रचण्ड दीपतुल्य बौद्ध विद्वानों के आकर्षण केन्द्र बनकर देव सेनानायक कुमार कार्तिकेय की प्रतीक्षा करते हुये शासन करने लगे। युधिष्ठिर सम्वत् से 38 वें वर्ष में कलि सम्वत् मानकर 557 ईसवी सन् पूर्व अर्थात् शंकराचार्य के जन्म के 48 वर्ष पूर्व कुमार स्कन्द का जन्म हुआ।समयानुरूप यज्ञोपवीतादि संस्कारों से सम्पन्न और साक्षात् बृहस्पति के – सदृश वैदुष्य का प्रकाश करते हुये बौद्ध विद्वानों को जीतते हुए सम्राट सुधन्वा की राजधानी में कुमारिल भट्ट पहुँचे। राजा विधर्मियों के चपेट में फँस गये थे। कालगर्भित तथा कालातीत तथ्यों के ज्ञापक वेद कूड़े में पड़े हुये थे। वैदिक ब्राह्मण तिरस्कृत हो रहे थे। स्वयं राजा की भी वेद में अनास्था हो गयी थी। परन्तु रानी वेदों के प्रति पूर्ण आस्थान्वित थी। खिड़की से निहारती हुई रानी विलाप कर रही थी मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ , वेदों का उद्धार कौन करेगा , श्रीभट्टपाद ने करुण क्रन्दन सुनकर उच्च स्वर से कहा – देवि ! खेद मत कर मैं भट्टाचार्य पृथ्वी पर विद्यमान हूँ। चिर प्रतीक्षित अतिथि के शुभागमन का सन्देश प्राप्त कर राजा ने उनकी अगवानी की , आस्था पूर्वक अभिनन्दन किया। स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान पण्डित प्रवर श्रीभट्टपाद ने सभागार के समीप वाटिका में सन्निहित कोकिलों की कूक सुनकर राजा को लक्षित करते हुये कहा । कोकिल! श्रुतिदूषक – कर्णकटु राग आलापने वाले मलिन काककुल से कदाचित् तेरा सङ्ग ना होता तो निस्सन्देह निसर्ग सुन्दर मधुर पञ्चम स्वर में गान करने वाले तुम श्लाघनीय होते। उक्त अन्योक्ति गर्भित अभिप्राय को परखने और समझने वाले बौद्ध विद्वान् हतप्रभ और पैरों तले कुचले गये सर्पों के सदृश कुपित हो गये। उन्हें शास्त्रार्थ के लिए उद्यत देख श्रीभट्ट ने बौद्धागम सिद्धान्त रूप वृक्ष को युक्ति रूपी कुठार से काटकर सञ्चित इन्धन को निज ओजस्विता रूपी अग्नि से जलाकर बौद्ध विद्वानों की कोपाग्नि ज्वाला को बढ़ाया। राजा ने कहा – शास्त्रार्थ में विद्या कौशल तथा अकौशल के अधीन जय या पराजय होती है। पर्वत के उच्च शिखर से कूदने पर भी दोनों पक्षों में जिसका बाल बाँका नहीं होगा , वही विजयी माना जायेगा। राजा के वचन को सुनकर बौद्ध विद्वान् पर्वत शिखर से कूदने का साहस नहीं कर सके। श्रीभट्टपाद कुमारिल ने पर्वत शिखर पर पहुँचकर उच्च स्वर से आह्लाद पूर्वक यह घोषणा कि यदि वेद प्रमाण हैं , तो मेरी कोई क्षति ना हो , ऐसी घोषणा कर सुदृढ़ महात्मा पर्वत शिखर से तूलराशि (रूई के ढेर) के तुल्य कूद पड़े। श्रुति ने वेद और वैदिक धर्मरक्षा के लिये व्यग्र उस लोकगुरु शरणागत ब्राह्मण की रक्षा की। क्या श्रुति अपने शरणागत की दुःखसे रक्षा नहीं करती , अवश्य ही करती है। जब वेदों में आस्थान्वित और वेदमार्ग पर प्रतिष्ठित ब्राह्मणों ने यह गाथा सुनी तब वे बहेलिये के भय से मौन धारण कर कुञ्जों में छिपे मोर जिस प्रकार मेघ की गर्जना सुनकर कुञ्जों से बाहर आ जाते हैं , उसी प्रकार लोकनायक कुमारिल की दिग्विजय गर्जना को सुनकर उनके समीप आ गये। राजा ने वेद , वेदिक धर्म और ब्राह्मणों की भूरि – भूरि प्रशंसा कर सम्मान किया।

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