आचार्य शंकर के अनुसार वेदादि शास्त्र प्रतिभा तथा प्रगति के अपहारक नहीं – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता, विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी आदि शंकराचार्य महाभाग के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि शिवावतार भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग ने धर्म तथा ब्रह्म को वेदों का अपूर्व प्रतिपाद्य माना है। उन्होंने सत्य , संयम , स्नेह , सेवा तथा सर्वहित को ब्रह्म अभिव्यञ्जक शीलरूप धर्म स्वीकार किया है। उन्होंने सबकी चाह के निसर्ग सिद्ध विषय मृत्युरहित जीवन मूढ़ता रक्षित विज्ञान , दुःख विनिर्मुक्त आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप रूप ब्रह्म का प्रतिपादन कर सबके जन्म और जीवन का वास्तव प्रयोजन असच्चिदानन्द रूप अनात्म वस्तुओं से विविक्त – गुणमय भावों से अतीत आत्म स्वरूप परमात्म देव का वरण बताकर सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने देहनाश से आत्मनाश और देहभेद से आत्मभेद ना मानकर आत्मा को अनश्वर और एक सिद्धकर अज्ञान सिद्ध अनर्गल अभिमति का अपलाप कर जन्मादि अनर्थो के निवारण का प्रशस्त उपाय प्रकट किया है। श्रीविष्णु सहस्रनाम, सनत् सुजातीय , ईश – केन – कठ – प्रश्न – मुण्डक – माण्डूक्य – तैत्तिरीय ऐतरेय – छान्दोग्य – बृहदारण्यक – नृसिंह पूर्व तापनीय नामक उपनिषदों पर, तद्वत् श्रीमद्भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रों पर भाष्य लिखकर , प्रपञ्च सार सौन्दर्य लहरी – जैसे तन्त्र ग्रन्थों एवम् अपरोक्ष अनुभूति , विवेक चूड़ामणि आदि प्रकरण ग्रन्थों की एवम् विविध स्तोत्र ग्रन्थों की संरचना कर आचार्य शंकर ने वैदिक वाङ्मय को समृद्ध किया। इन ग्रन्थों के माध्यम से श्रीभगवत्पाद ने देहेन्द्रिय प्राणान्तः करण के शोधन तथा समाधि सिद्धि का क्रमिक सोपान प्रस्तुत किया। तद्वत् उन्होंने सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर को जीवन एवम् जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण सिद्ध कर उन्हें एक , सगुण – निर्गुण , साकार – निराकार , सर्वव्यापक , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान् , सर्वरूप तथा सर्वातीत एवम् वस्तुतः प्रत्यगात्म स्वरूप सिद्धकर विविधता में निसर्ग सिद्ध एकता का अद्भुत आह्लादप्रद सन्देश प्रदान किया। सर्व देश , सर्व काल में सबको समुचित शिक्षा , रक्षा , अर्थ और सेवा को परम्परा से सुलभ कराने वाली तथा प्रवृत्ति को निवृत्ति और निवृत्ति को निर्वृति (कैवल्य मुक्ति ) तक पहुँचाने वाली मन्वादि सम्मत वर्णाश्रम व्यवस्था को व्यावहारिक धरातल पर स्वीकार करने वाले भगवत्पाद ने डंके की चोट से यह तथ्य सिद्ध किया कि वेदादि शास्त्र प्रतिभा तथा प्रगति के अपहारक या अवरोधक नहीं हैं , अपितु एकमात्र अभिव्यञ्जक हैं। आचार्य शंकर ने पूर्व में ऋग्वेद से सम्बद्ध श्रीगोवर्द्धनपीठ को और पश्चिम में सामवेद से सम्बद्ध श्रीद्वारका – शारदापीठ को समुद्र के तट पर और उत्तर में अथर्ववेद से सम्बद्ध ज्योतिष्पीठ को तथा दक्षिण में यजुर्वेद से सम्बद्ध शृङ्गेरीपीठ को पर्वतमाला के मध्य प्रतिष्ठित कर भौगोलिक एवम् सांस्कृतिक दृष्टि से भारत को सुरक्षित और सुव्यवस्थित किया।

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